प्रार्थना का अर्थ
प्रार्थना का अर्थ ईश्वर की महिमा का गायन है। प्रार्थना में दृढ़ विश्वास अनिवार्य है। प्रार्थना प्रभावशाली हो । इसके लिए यह पूर्ण विश्वास होना चाहिए कि हर परिस्थिति में केवल परमात्मा ही हमारा रक्षक है तथा हमारी सच्ची ओट-आसरा है। प्रार्थना सदैव हार्दिक होनी चाहिए।
प्रार्थना का अर्थ – मालिक की मौज में समर्पित
सच्चा भक्त प्रार्थना करते समय स्वयं को मालिक की मौज में समर्पित कर देता है। इसलिए प्रार्थना निरन्तर होनी चाहिए। प्रभु के दिव्य नाम का उच्चारण होठों से, दिल से, भावना से दिव्य स्वरूप का निरन्तर ध्यान करते हुए करना चाहिए। उनकी शरणागति और भक्ति पाने के लिए असीम कृपा की याचना करनी चाहिए।
आधुनिक युग में अधिकतर लोग एक ही प्रार्थना को बार बार करना व्यर्थ और तुच्छ समझते हैं और उसे जनसाधारण की मन्द बुद्धि मानते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से वे उसके रहस्य को ही नहीं जानते।
वे यह नहीं जानते कि किसप्रकार बार-बार हाठी से किया गया स्वरों का उच्चारण, अति सूक्ष्म रूप में सच्चा प्रार्थना बन जाता है। वे आन्तरिक गहराई में डूब कर आत्मा से मिलकर उसमें प्रकाश और दिव्यता लाता है और जीव को परमात्मा से मिलने के लिए अग्रसर करता है
जब हम प्रार्थना करते है तब हम प्रायः कछ समय के लिए सांसारिक मोह-माया से दूर हो जाते हैं उस समय हम शरीरसे ऊपर उठ जाते हैं और अपनी सुध-बुध भूल जाते हैं।
प्रार्थना द्वारा हम उस परमात्मा की कृपा एवं आशीर्वाद पाने की हृदय से याचना करते हैं।प्रार्थना आत्मा का आधार है व हमारे स्वभाव का एक अंश है। जिसप्रकार हमारे जीवन के लिए आहार अनिवार्य है, उसीप्रकार आत्मा के लिए प्रार्थना आवश्यक है।
प्रार्थना ईश्वर से मिलने के लिए याचना है। वे आँखें धन्य हैं जिनमें से प्रभु प्रियतम की याद में आँसू के मोती झरते हैं।
प्रार्थना आत्मिक शक्ति का स्रोत है। सच्ची प्रार्थना का अर्थ है कि आत्मा बन्धनमुक्त होकर परमात्मा से मिलने के लिए व्याकुल है। सच्चा भक्त प्रार्थना करते समय स्वयं को प्रभु की मौज पर छोड़ देता है। यह सच्ची ज्योति के लिए प्रार्थना है।
ईश्वर के समीप लाती है
प्रार्थना भक्त को ईश्वर के समीप लाती है जो सर्वव्यापक, ज्योति-पुँज, निराकार तथा पवित्र है, जिनके द्वारा सारे पाप और दोष धुल जाते हैं और भक्त उन ईश्वरीय गुणों को मन में धारण करता है जो उसे दिव्यता की ओर ले जाते हैं।
प्रेमभरी प्रार्थना का गहरा आनन्द आत्मा को विभोर करता है। प्रार्थना के द्वारा भक्त अपनी हृदय की गहराई मेंडुबकी लगाता है और परम सुख में विलीन हो जाता है।अपने अस्तित्व को परमात्मा में विलीन कर देता है।
पुनः जब वह इस संसार में अपने अस्तित्व का आभास भी करता है तो हर वस्तु को उस अनन्त परमात्मा की ज्योति से प्रकाशित देखता है।प्रार्थना में निःस्वार्थ भाव की स्थिति प्राप्त करना साधक के लिए सरल नहीं है।
इसके लिए सद्गुरु के मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। सद्गुरु की दया दृष्टि और प्रेम ही सदैव साधक की सहायता करता है।
पूर्ण समर्पण भाव से की गई प्रार्थना तुरन्त ही सुनी जाती है। विश्वास दृढ़ हो जाता है और जीव की आत्मोन्नति और पवित्रता के लिए मार्ग सुलभ व सरल हो जाता है।