परमात्मा आनन्दरूप है। मन्दिर में श्रीरामजी का दर्शन करते हो, उस समय शायद तुमको ऐसा लगता है कि जैसे मेरे हाथ-पैर हैं, वैसे ही हाथ-पैर ठाकुरजी के भी हैं l
परन्तु अपने शरीर में और ठाकुरजी के स्वरूप में बहुत अन्तर है। अपने शरीर का विचार करोगे तो ध्यान में आयेगा कि इस शरीर के अन्दर रुधिर है, मांस है, मज्जा है, हड्डी है।
श्रीराम के श्रीअंग में न तो रुधिर, न माँस, न मज्जा और न हाड़ हैं; है तो केवल आनन्द क्यूंकि परमात्मा आनन्दरूप है। । आनन्द के अलावा दूसरा कुछ भी नहीं।जीव को जो शरीर मिला है, वह पूर्व जन्म के कर्म-प्रमाण में मिला है। पूर्वजन्म की वासना के प्रमाण में मिला है-
‘कर्मणा निर्मितो देहः।
किन्तु परमात्मा स्वयं की इच्छा से या भक्तों की इच्छा से शरीर धारण करते हैं।
परमात्मा का शरीर पञ्चमहाभूतों का बना हुआ नहीं–परमात्मा का स्वरूप अप्राकृत है, अलौकिन है, आनन्दस्वरूप है।
जीव को उत्पत्ति और स्थिति में ही आनन्द आता है लय में आनन्द आता नहीं। भगवान् को लय में भी आनन्द आता है कारण, भगवान स्वयं आनन्दस्वरूप है। श्रीकृष्ण को सोलह हजार रानियों के संसर्ग में जो आनन है, वही आनन्द सोने की द्वारिका के समुद्र में डूबते समय भी है।
परमात्मा आनन्दरूप है।
जीव माया के अधीन होकर जगत् में आता है, परमात्मा मायाधीश होकर जगत् में प्रकट होते हैं। रामजी ने पूर्वजन्म में कोई कर्म किया है और उस कर्मः प्रमाण में स्वरूप धारण किया है, ऐसा नहीं। वाल्मीकिजी ने कहा है
चिदानंदमय देह तुम्हारी । बिगत बिकार जान अधिकारी॥
नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा॥
परमात्मा में आनन्द है
कि सोने का आभूषण था। उसकी सुवर्ण-मूर्ति बनाई गई। इस सोने की मूर्ति में सोना ही सोना है। सोने की मूर्ति के पैर में सोना, हाथ में सोना, नख में सोना, था। सर्वत्र सोना ही है। उसी रीति से ईश्वर के स्वरूप में आनन्द-ही-आनन्द होता है परमात्मा का स्वरूप दीखता है अपना जैसा, परन्तु यह अपना जैसा नहीं, यह केवल आनन्दमय है।
व्यासनारायण का ब्रह्मसत्र है- आनन्दमयोऽभ्यासात।
कितने ही ऋषि मानते हैं कि ईश्वर में आनन्द है। जो ऋषि ईश्वर में आनन्द है, ऐसा मानते हैं, उनके सिद्धान्त में आनन्द और ईश्वर-ये दो तत्त्व प्रथक हैं। दो छोड़ना तत्त्व भिन्न हैं, इससे ऐसा फलित होता है। इसमें द्वैत आता है।
व्यास, वाल्मीकि आदि ऋषियों का सिद्धान्त है कि आनन्द ही ईश्वर है , आनन्द और ईश्वर भिन्न नहीं। यह अद्वैत सिद्धान्त है। आनन्द ईश्वर में है, ऐसा नहीं। आनन्द, ईश्वर,श्रीराम, श्रीकृष्ण-सब एक के ही नाम है। आनन्द ही ईश्वर का स्वरूप है।।
खाँड़ के खिलौने में खाँड़ ही होती है
खाँड़ के खिलौने में खाँड़ ही होती है। खाँड़ का खिलौना जिस प्रकार आर नख से शिख तक खाँडमय होता है, उसी प्रकार परमात्मा का सम्पूर्ण स्वरूप आनन्दमय है। ठाकुरजी के नख और बाल का दर्शन हो, उस समय भी जीव को आनन्द मिलता है।
फिर भगवान् के चरणारविन्द और मुखारविन्द के दर्शन से आनन्द मिले, इसमें क्या आश्चर्य है? प्रभु के नख और बाल भी आनन्द रूप हैं। परमात्मा का समस्त स्वरूप आनन्दमय है।
अलौकिक सिद्धान्त समझने के लिए कोई अलौकिक दृष्टान्त मिलता नहीं। लौकिक दृष्टान्त से ही महापुरुष अलौकिक सिद्धान्त समझते हैं।
रात के बारह बजे हैं, एक भाई खटिया में पड़े हुए हैं। परन्तु उनको निद्रा आती नहीं। वह भाई विचार में पड़े हैं कि आज निद्रा क्यों नहीं आ रही हैं।
विचार करने के बाद याद आया कि आज रात्रि को गर्म पानी (चाय) । भाई को रात्रि में कुछ चाय पीने की आदत थी। वे रात्रि के बारह बजे चाय बनाने को तैयार हुए। कारण, चाय मिले तो निद्रा आये। पत्नी पीहर गई हुई थी । इसलिए स्वय को ही सब खटपट करनी पड़ी। पानी गर्म करने लगे।
तयारी तो की, परन्तु संयोग से डिब्बे में खाँड़ नहीं मिली, समाप्त हो गयी अब खाँड बिना चाय बने नहीं और चाय न मिले तो निद्रा आये नहीं। रोज की आदत थी।
अब क्या किया जाये और खाँड़ लेने कहाँ जाएँ?
रात्रि के बारह बजे खाँड कौन दे? अन्त में याद आया कि उत्तरायण के दिन बालकों के लिए मैं खाँड के खिलौने खरीदकर लाया था। वे घर में ही कहीं पड़े होंगे। फिर एक डिब्बा खोलकर ढूँढ़ने लगे कि वे खिलौने कहाँ हैं?
शौकीन मनुष्य और व्यसनी मनुष्य क्या न करे? भाई को चाय का व्यसन मोना था। व्यसन के समान कोई पाप नहीं। व्यसन से शक्ति का, द्रव्य का नाश होता है। कोई भी लौकिक व्यसन मनुष्य का पतन करता है।
तुम चाय छोड़ो यह ऐसा कहने में तो मेरा मन कुछ डरता है, कारण कि मैं बहुत कहूँ तो भी तुम छोड़ने वाले नहीं।
कितने ही तो ऐसा समझते हैं कि महाराज को टेव नहीं, मानन्द इसलिये महाराज कदाचित् ऐसा कहते हैं। महाराज भले कहें, हमको कुछ छोड़ना नहीं। तुम चाय भले ही न छोड़ो परन्तु तुम परमात्मा के प्यारे हो, प्रभु मीकि के लाडले हो, वैष्णव हो, तुम चाय के अधीन न बनो।
रात्रि के बारह बजे हाथ में माला लेकर भाई किसी दिन भी जप करने बैठा नहीं, परन्तु चाय पीने की बहुत आतुरता है। इसलिये रात्रि के बारह बजे खाँड़ ढूँढ़ते हैं। एक घण्टे की तपस्या हुई तब खाँड़ के खिलौने का डिब्बा हाथ में आया। बहुत राजी हुआ, बस अभी चाय मिलेगी।
डिब्बे में खाँड़ का एक हाथी था। हाथी के दो पाँव तोड़े और चाय में डाल दिये।
हाथी के पैर डाले या खाँड़ डाली? बालक को हम समझाते हैं कि यह हाथा है, यह घोड़ा है परन्तु खाँड़ का हाथी खाँड़ ही है। खाँड़ के खिलौने में खाड़ के सिवाय और दूसरा कुछ नहीं है।
अगर हाथी हो तो डिब्बे में रह सकता है? यह न तो हाथी है न घोड़ा है। बालक को भले ही वह हाथी दीखे, परन्तु खाँड़ के खिलौने में हमें तो खाँड़ ही दीखती है।
खाड़ का खिलौना जिस प्रकार खाँडमय ही है, उसी प्रकार परमात्मा का सम्पूर्ण स्वरूप आनन्दमय ही है। ठाकुरजी के श्रीअङ्ग में आनन्द के अतिरिक्त न्य कुछ भी नहीं है। परमात्मा आनन्दरूप है-
निलेपः परिपूर्णश्च सच्चिदानंदविग्रहः
जीव का ईश्वर से वियोग हुआ है, यह ईश्वर से यह पृथक हुआ है यह जगत का नहीं, ईश्वर का है। फिर भी यह स्वयं के शरीर-स्वरूप को भुला हुआ है और जगत् का बन गया है। जगत् का होने से ही यह दुःखी यह जगत् में आनन्द ढूँढ़ता है परन्तु संसार में आनन्द कहाँ है? आनन्दरूप परमात्मा है।
तुम आनन्द चाहते हो तो परमात्मा के साथ प्रेम करो
तुम आनन्द चाहते हो तो परमात्मा के साथ प्रेम करो, प्रभु का स्मरण करो, परमात्मा की सेवा करो। तुमको आनन्द मिलेगा। जीव संसार के पदार्थों में आनन्द खोजने जाता है। जिससे उसको आनन्द मिलता नहीं।
आनन्द दूसरे में है, यह कल्पना गलत है। आनन्द हृदय में है। उस आनन्द को गाना है। मन, वचन, कर्म तीनों भक्ति-रस में डूबें तो आनन्द जागता है। शारीर से सेवा करो, मन से सेवा करो, वचन से सेवा करो। इन तीनों को भक्ति का लाभ दो। ।
अनन्त काल से जीव आनन्द को खोजता है। संसार के विषय जीव को सुख देते हैं, दुःख देते हैं। इसको आनन्द मिलता ही नहीं। सृष्टि का एक नियम है कि सुख के बाद दुःख होता ही है।
जो सुख भोगता है, उसकी भले ही इच्छा हो न हो, उसे दुःख भी भोगना पड़ता है। सुख और दुःख दोनों सगेभाई हैं ये साथ ही रहते हैं।
जीव को सुख की भूख नहीं, आनन्द की भूख है
जीव को सुख की भूख नहीं, आनन्द की भूख है। यह आनन्द चाहता है, पर आनन्द संसार में नहीं। आनन्द ईश्वर का स्वरूप है। जहाँ जगत् है, वहीं सुख-दुःख है। जहाँ जगत् नहीं, वहाँ सुख है न दुःख। वहाँ है केवल आनन्द। परमात्मा सुख देते नहीं वो तो आनन्द देते हैं।
‘आनन्द” का विरोधी शब्द मिलता नहीं
किसी भी भाषा में ‘आनन्द” का विरोधी शब्द मिलता नहीं। “सुख” का विरोधी शब्द “ दुःख’ है। “लाभ’ का विरोधी शब्द ‘हानि है। ‘राग’ का विरोधी शब्द “द्वेष’ है। आनन्द का विरोधी शब्द कुछ नहीं।
परमात्मा आनन्दरूप है।
मनुष्य शान्ति ! शान्ति! चिल्लाते हैं और इसकी खोज वह वहाँ करते हैं जहाँ शान्ति है ही नहीं
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