—— जब ध्यान न लगे, तब हम क्या करें ——
एक बार संत कबीर साहब जी का एक शिष्य उनसे मिलने आया। उसके चेहरे पर गहरी उदासी साफ दिख रही थी। वो मुरझाया हुआ चेहरा लेकर कबीर जी को प्रणाम करके वहां बैठ गया।
कबीर जी ने उससे उसकी मायूसी का कारण पूछा।
शिष्य ने जवाब दिया- गुरुदेव, आपने मुझे भक्ति के लिए सिमरन और ध्यान की युक्ति तो समझाई है, लेकिन बहुत कोशिशें करने पर भी मेरा ध्यान नहीं लगता। आंखें मूंदते ही मन बाहर दौड़ने लगता है और मैं चाहकर भी अपने मन को अंदर नहीं टिका सकता। मैं क्या करूं गुरूदेव?
कबीर जी ने समझाया- दुःखी मत हो बेटा, जब भी तुम्हारा चंचल मन सिमरन और ध्यान में ना टिके, तो अपनी आंखें मूंदकर सबसे पहले अपने गुरू के स्वरूप का ध्यान करो और फिर उसी ध्यान की गहराई में उतर जाओ।
शिष्य हाथ जोड़कर बोला- जी गुरुदेव, मैं पूरा प्रयास करूंगा। परंतु यदि मेरा चंचल मन फिर भी न टिक पाया, तब मैं क्या करूंगा?
कबीर जी ने फिर से कोमल वचनों से फरमाया- यदि तब भी तुम्हारा मन न लगे, तो फिर तुम अपने गुरू के वचनों को याद करना, क्योंकि गुरु के वचन हमारे ध्यान को टिकाने में बहुत मदद करते हैं और उनको याद करने से मन की भागदौड़ धीरे-धीरे घटने लगती है और ध्यान पकने लगता है।
शिष्य अभी भी पूरी तरह संतुष्ट नहीं हुआ था। वो रोते हुए बोला- गुरूदेव, यूं बार-बार आपसे सवाल पूछना मेरी मूर्खता है, लेकिन यदि मेरे मन ने फिर से कोई और चाल चल दी, तब मैं क्या करूंगा?
कबीर जी ने कहा- बेटा , फिर तुम अपने मन को उन पलों की याद दिलाना, जब-जब गुरु ने तुम पर कृपा की और तुम्हें सहारा दिया। अपने मुर्शिद (गुरु) का प्रेम से ध्यान करना ही मोक्ष की सीढ़ी है, लेकिन शिष्य के ध्यान का टिकना और लगना केवल और केवल गुरु की कृपा से ही संभव है। शिष्य जब सच्चे दिल से अपने गुरू को याद करता है और उनका ध्यान करता है, तब गुरु अनगिनत खुशियां अपने शिष्य की झोली में बिना मांगे ही डाल देते हैं।
शिष्य की आंखें श्रद्धा और प्रेम के आंसुओं से छमाछम बरस रही थीं, और संत कबीर साहब जी उसे बड़े ही प्रेम से निहार रहे थे।🙏🙏