कुण्डलिनी महाशक्ति | Kundalini Shakti
कुण्डलिनी महाशक्ति क्या है
एक शक्ति सर्व संसार में काम कर रही है। संसार की समस्त रचना उसी के द्वारा हुई है। इस शरीर में भी वही काम करने वाली शक्ति है। उसको कुण्डलिनी महामाया कहते हैं।
नाभि के नीचे उसका स्थान है। पेट में मांस का एक कमल है। इस कमल के बीच हृदय कमल है जिसमें सूर्य और चन्द्रमा स्थित हैं। इस कमल के अन्दर दो और कमल हैं- एक नीचे और दूसरा ऊपर है।
एक आकाश और पृथ्वी रूप है। नीचे के कमल में चन्द्रमा और ऊपर के कमल में सूर्य का निवास है। इन दोनों के मध्य में कुण्डलिनी महामाया रहती है और सांप के समान साढ़े तीन लपेटे मार कर बैठी है।
वह मोतियों के भण्डार के समान प्रकाशवान है इससे स्वयं जो वायु निकलती है, वह सांप की फुंकार के समान प्राण और अपान के रूप में स्थिर होती है। यह दोनों वायु टक्कर खाती हैं तो इनसे संघर्ष शक्ति पैदा होती है।
जठराग्नि उसका दूसरा नाम है। यह पेट में इस तरह रहती है जैसे सागर में बड़वानल रहती है। यह दोनों जल सुखाती हैं। प्राण और अपान परस्पर टक्कर खाती हैं। उससे हृदय में बड़ा प्रकाश होता है।
इस हृदय में एक भंवरा सोने के रंग का है। उस भंवरे के दर्शन करने से योगी की दृष्टि लाख योजन तक पहुंचती है। शीतल वायु को चन्द्रमा और गर्म को सूर्य कहते हैं। इसके मुख से फुंकार की आवाज़ निकलती है।
इस आवाज़ को शब्द, प्रणव, ॐ और मन इत्यादि भी कहते हैं। यह वासनाओं से भरी हुई होती है। भांति-भांति की सांसारिक वासनाएं उस का विषय है। जब कुण्डलिनी में स्फुरण पैदा होता है, तब मन प्रकट होता है।
जब निश्चय हुआ, तब बुद्धि उत्पन्न हुई। जब अहंभाव हुआ तब इससे अहंकार पैदा हुआ। जब चिन्तन होता है, तब चित्त उत्पन्न होता है।
रस लेने की इच्छा से जल, सूंघने की इच्छा से प्रकृति, इसी तरह पांचों तन्मात्रा, चारों अन्तःकरण, चौदह इन्द्रियां और सब नाड़ियां इसी कुण्डलिनी से उत्पन्न होती हैं। मन से तीन लोक और चारों वेद उत्पन्न होते हैं।
सब कर्म, धर्म इसी से प्रकट होते हैं। यह स्थूल रूप से ब्रह्माण्ड में विराजमान है। पिण्ड से ब्रह्माण्ड को सुषुम्ना नाड़ी से होकर मार्ग जाता है।
प्राण और अपान दोनों तरह की वायु को योगेश्वर सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग से ब्रह्माण्ड में पहुंचाते हैं। एक क्षण इस स्थान पर वायु ठहराने से सिद्धों का दर्शन होता है।
सुषुम्ना के भीतर जो ब्रह्मरन्ध्र है, उसमें पूरक द्वार कुण्डलिनी शक्ति स्थित होती है अथवा रेचक प्राणवायु के प्रयोग से बारह ऊंगल तक मुख से बाहर अथवा भीतर ऊपर एक मुहूर्त तक एक ही बार स्थित होती है। तब पांच कोष में सिद्धों का दर्शन होता है।
मानव शरीर में पांच कोष हैं। जीवात्मा इन पांच कोषों में स्थित है-
(1) आनन्दमय कोष-कारण शरीर।
(2) विज्ञानमय कोष-पांच ज्ञानेन्द्रियां, अन्तःकरण की वृत्ति और बुद्धि ।
(3) मनोमय कोष-पांच ज्ञानेन्द्रियां और मन के संकल्प।
(4) प्राणमय कोष-पांच कर्मेन्द्रियां और पांच प्राण।
(5) अन्नमय कोष इसे स्थूल शरीर भी कहते हैं। कोष नाम म्यान का है। इसका तात्पर्य यह है कि यह जीवात्मा को ढकने वाले हैं।
उपर्युक्त सभी आध्यात्मिक रहस्य बिना सद्गुरुदेव की कृपा के नहीं मिल सकते। साधक और जिज्ञासुओं को चाहिए कि वे ऐसे संत सद्गुरु की खोज करें जो धुनात्मक अथवा अनहद शब्द के मार्ग को जानता हो और जिसने दृष्टि साधना भी की हो।
उसने दोनों तिलों को खींच कर अभ्यास की सहायता से एक किया हुआ हो। उसने आकाशवाणी सुनकर सुर्ति को चढ़ाया हुआ हो और जो अजपा-जाप जानता हो।
ऐसे पूर्ण सद्गुरु मिलने पर उनकी सेवा तन-मन-धन से करें और उनको अपने ऊपर हर समय दयालु समझ लें। जिस समय उनकी कृपा-दृष्टि साधक पर पड़ेगी, उस समय मन की दृढ़ता होगी।
अभ्यास की विधियों का वर्णन संत महापुरुषों ने इस तरह किया है-
आंख कान मुंह ढांप कर नाम निरंजन ले।
अन्दर के पट तब खुलें जब बाहर के पट दे ।।
तीनों बन्द लगाये के अनहद सुनो टंकोर।
नानक सुन्न समाधि में नहीं सांझ नहीं भोर ।।
चश्म बन्दो गोश बन्दो लबे बन्द ।
गर न बीनी नूर हक वर मन बखन्द ।।
महापुरुषों ने उपरोक्त वाक्यों में अभ्यास की तीन युक्तियों पर प्रकाश डाला है। उन तीन क्रियाओं का संक्षिप्त वर्णन इस तरह है।
अभ्यास से जितनी बड़ाई आंख को है, उतनी और किसी को नहीं। यह सर्व प्रकार से परिपूर्ण है।
सहज-समाधि परमात्मा को मिलने की सर्वोत्तम युक्ति है। देवता दिल की आंख से परमात्मा को देखते हैं और आन्तरिक स्थानों की सैर करते हैं-
सहज समाधि का सीख ले लटका,
काहे फिरे तू इत उत भटका।
दिल की भी जरा तू सैर कर,
जल्वा-ए-दीदार आए नजर।।
Kanha mere Kanha mere Kanha | कान्हा मेरे कान्हा मेरे कान्हा