करत करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान
॥ दोहा ॥
करत करत अभ्यास ते, जड़मति होत सुजान ।
रसरी आवत जात ते, सिल पर पड़त निसान ॥
किसी कार्य को नियमपूर्वक किया जाय तो उसमें अवश्य सफलता प्राप्त होती है। जब एक साधारण सी रस्सी प्रतिदिन कुएँ से जल भरती हुई पत्थर पर भी अपना निशान कर डालती है तो फिर मनुष्य के अभ्यास करने से कौनसा ऐसा कठिन काम है, जिसमें वह सफल न हो सकेगा?
परन्तु शर्त यह है कि जिस तरह का कार्य हो उसी प्रकार के अभ्यास करने की आवश्यकता होती है। जैसे कि इस दृष्टान्त में आप पढ़ेंगे-किसी राजा का एक लड़का था। बाल्यकाल से ही वह बुरी संगति में पड़ गया और संखिया तक खाना सीख गया।
(पूर्व युग में नशे के रूप में लोग संखिये का सेवन किया करते थे) राजकुमार पहले एक रत्ती भर संखिया खाया करता था परन्तु प्रतिदिन के सेवन से उसकी यह आदत बढ़ती गई । बुरी आदतें जीवन में धीरे-धीरे गहरी उतर जाती हैं। उस राजकुमार के विचारों में स्वच्छन्दता ने घर कर लिया। संखिया के अति सेवन से वह सुख-भोगों का इच्छुक, विलासी व प्रमादी हो गया।
सदैव महलों में ही पड़ा रहता । कर्त्तव्य-बुद्धि तो उससे लाखों कोस दूर जा चुकी थी ।जब उसके पिता का देहावसान हो गया तब उसको ही उस देश का सम्राट् बना दिया गया। राजगद्दी पर वह बैठ तो गया परन्तु संखिया के दुष्प्रभाव से उससे राज्य के कार्य न हो पाते थे। अहर्निश महलों में पड़े रहना और रंगरलियाँ मनाना ही उसने जीवन का मुख्य लक्ष्य समझा हुआ था।
जब वह राज-काज की ओर से नितान्त असावधान हो गया तो राज्य के समस्त कार्य मुख्य मंत्री ही किया करता। यद्यपि मंत्री दूरदर्शी व अनुभवी था लेकिन जब राजा ही दुश्चरित्र और पथ भ्रष्ट हो तो मंत्री अकेला क्या कर सकता था? मंत्री ने अपनी ओर से कई बार कई तरीकों से राजा को समझाया पर मंत्री की किसी बात का राजा पर कोई भी प्रभाव न पड़ता था ।
वह मन्त्री की बात सुन कर आई-गई कर छोड़ता । राजा पर भोग विलासिता का गहरा रंग चढ़ चुका था जिसके कारण उसे अपना भला-बुरा कुछ भी न सूझता था ।जहाँ तक हो सका राज्य के कार्य मंत्री चलाता रहा। आखिर वह भी तो एक वेतन भोगी कर्मचारी था।
राज्य के अन्य समस्त कर्मचारी अपनी-अपनी डफ़ली अपना-अपना राग अलापने लगे अर्थात् सभी मनमानी चाल चलने लगे। न कोई किसी की बात मानता, न कोई किसी को उच्च पद पर स्थित हुआ जानकर भी उसके अधिकार में रहना पसन्द करता ।
भाव यह कि समूचे राज्य में अराजकता ने डेरा डाल लिया । मन्त्री ने जब राज्य की दुर्व्यवस्था देखी तो उससे न रहा गया। वह फिर राजा को सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करने लगा परन्तु विकारों से अन्धे हुए राजा ने मन्त्री की किसी बात पर कान न दिये ।इस राजा की कई रानियां थीं परन्तु उसका अधिक झुकाव सबसे छोटी रानी की ओर था। वह सबसे अधिक रूपवती और हँस मुखी थी ।
अतः राजा अधिकतर उसी के पास ही रहता था और वह रानी भी इस बात में अपना अहोभाग्य समझती थी । स्वयं रानी भी राजा को अपने माया जाल में फँसाने के लिए हर प्रकार की युक्तियां सोचा करती। राजा तो वैसे ही विषयलो लुप था । ‘अन्धा क्या मांगे ? दो आँखें । ‘मन्त्री ने बहुत प्रयत्न किया, मगर राजा को सत्पथ पर लाने का कोई उपाय उससे न बन पाया।
शुभ चिन्तक मंत्री ने विवश होकर विचार किया कि राजा अगर मेरी बात नहीं मानता, तो चलो न सही, रानी के द्वारा ही उसको समझाया जाये। शायद उनके कहने से राजा अपनी बुराई को छोड़ राज-कार्य की ओर रुचि देने लग जाये । इसी विचार से मंत्री एक दिन अवसर पाकर छोटी रानी के पास गया। जाकर सादर नमस्कार किया।
मंत्री को आया देख रानी ने आदर से पूछा – “क्यों मंत्री जी! कहिये किस प्रयोजन से यहाँ आने का आपने कष्ट किया है ?”मन्त्री – रानी जी आप अति विवेक विचार शालिनी हैं। हर बात को समझती हैं। इसलिए मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ।रानी – कहिए! आप क्या कहना चाहते हैं ?मन्त्री – कहना-सुनना कुछ भी नहीं ।
केवल इतनी विनम्र प्रार्थना है कि राजा साहब के दिन-रात महलों में पड़े रहने से राज्य के सभी काम बिगड़ते जा रहे हैं, राज्य की दुर्व्यवस्था होती जा रही है। अब तक मैंने किसी प्रकार से राज्य की बागडोर सँभाले रखी है। आखिर मैं भी राज्य का एक तुच्छ कर्मचारी ही ठहरा। जैसे अन्य लोग हैं, वैसे ही मैं भी हूँ।
सेना के लोग अलग सिर उठा रहे हैं, कृषि-विभाग वाले अपनी मनमानी कर रहे हैं अर्थात् सब की स्वच्छन्द प्रवृत्ति से समस्त विभागों में अवनति हो रही है। ‘नाऊ की बारात में जने जने ठाकर’ वाली बात यहाँ चरितार्थ हो गई है। यही जटिल समस्या आपके समक्ष लेकर आया हूँ।रानी – परन्तु मन्त्री जी ! आप मुख्य मन्त्री हैं।
आप का पद कहीं ऊँचा व श्रेष्ठ है।मन्त्री – मगर राजा शरीर में सिर की जगह होता है। तथा मैं राजा का दाहिना हाथ हूँ। जब तक राजा साहब आज्ञा न दें तो दाहिना हाथ क्या काम करे ? मैं सैकड़ों बार राजा साहब को समझा चुका, परिणाम वही ‘ढाक के तीन पात’ कुछ भी सुधार न हो सका। मुझे आशंका है कि कहीं राज्य की दुर्व्यवस्था और अन्धेर गर्दी को देखकर कोई अन्य राजा हम पर आक्रमण न कर बैठे और बना बनाया सारा खेल बिगड़ न जाये।
मैं हर प्रकार से हताश और विवश होकर ही आपसे यह निवेदन करने आया हूँ। अब मेरी व इस राज्य की प्रतिष्ठा आपके हाथ में है । आप मुझ से अधिक प्रश्न न करके इस जटिल समस्या का समाधान करने की कृपा करें। इससे अधिक आप जैसी राज्य की स्वामिनी को समझाना सूर्य को दीपक दिखाना है ।
रानी – बहुत खूब; आप निश्चिन्त रहिये। जब आप को मुझ पर इतना विश्वास है तो जो कुछ मुझ से बन आएगा मैं अवश्य करुँगी। आप पूर्ववत् यथाशक्ति रुचि से अपना कर्त्तव्य पालन करते रहिये ।मन्त्री रानी से सांत्वना युक्त उत्तर पाकर वहां से विदा हुआ ।अब रानी ने मन्त्री की बात पर गम्भीर विचार किया कि राजा साहब क्यों इस कदर प्रमादी और विलासप्रिय हो गए हैं ?
सोचते-सोचते रानी को यह ज्ञात हुआ कि राजा साहब जो वर्षों से संखिया का सेवन करते आ रहे हैं उसी के फल स्वरूप इनकी यह दुर्दशा हुई है। प्रत्येक चीज़ की सीमा होती है। किसी व्यक्ति को मारने के लिए एक रत्ती भर संखिया जब काफी है तब राजा साहब तो इससे कितनी अधिक मात्रा में इसका सेवन करते हैं तो उन पर क्यों न इतना घातक प्रभाव पड़ता ?
इनकी यह आदत प्रतिदिन के अभ्यास से ही हुई है। अतएव प्रतिदिन के अभ्यास से ही यह दूर हो सकेगी। रानी ने विचार किया- यदि एकदम ही राजा से संखिया छुड़वा दिया जाय, तो इससे राजा की मृत्यु होने का भय है क्योंकि इस बात से तो सभी परिचित हैं ही कि कभी किसी दिन राजा साहब को नशा लेने में तनिक मात्र भी विलम्ब हो जाता तो राजा साहब के हाथ-पाँव अकड़ने लगते हैं।
अतः अब यह कार्य (नशा छुड़ाने का) मुझे ही करना होगा। उन्हें सही रास्ते पर लाकर ही मेरा कर्त्तव्य पालन पूर्ण हो सकेगा । तब ही मैं सच्चे अर्थों में उन की सहधर्मिणी कहलाने के योग्य होऊँगी। यदि मैंने ऐसा न किया तो राज्य के विनाश का भय है। जिससे मेरा व राजा साहब का सब सुख-वैभव व यश मिट्टी में मिल जायेगा तथा मात्र दुःख व अशान्ति ही पल्ले पड़ेगी। अपने विचारों को दृढ़ कर रानी भीतर आई जहाँ राजा साहब पलंग पर लेटे थे।
रानी को वापस आया देख कर राजा साहब पूछने लगे – यह मंत्री क्यों आया था ?
रानी – महाराज ! राज-काज के सम्बन्ध में ही कुछ बतलाने आया था ।
राजा – क्या ?
रानी- यही कि छोटी रानी के हाथ महाराज बिक गये हैं तथा सदैव उसी की बात मानते हैं।
राजा – (रुखाई से) आखिर वह कहता क्या था ?
रानी – उसका अभिप्राय यह था कि आगे से मैं आप से पूछ कर उसको आपका हुक्म सुना दिया करूँ ।
राजा – बहुत अच्छा हुआ, मन्त्री से पिण्ड छूटा। मैं तो इस मन्त्री का मुँह तक देखना नहीं चाहता । सदैव मेरे विषय – विलास में विघ्न ही डालता रहता है।
रानी – (बातों ही बातों में) महाराज ! आप मेरी एक बात मानेंगे ?
राजा – वाह, क्यों नहीं। आपकी बात मानने से मैं इनकार भी कब कर सकता हूँ ?… हाँ हाँ बताइये । ।
रानी – स्वामिन्! मेरी हार्दिक चिर अभिलाषा यह है कि आप जो संखिया का सेवन करते हैं वह मेरे ही हाथ से हुआ करे ताकि मैं आपकी इस निजी सेवा का सौभाग्य प्राप्त कर सकूँ ।
राजा – (खुशी से हँस कर ) अवश्य, इससे श्रेष्ठ फिर और क्या बात होगी । तब से रानी ने अपने ही हाथों से राजा को रोज़ संखिया खिलाना शुरु किया और प्रतिदिन उस संखिया की मात्रा घटाती चली गई तथा उसके बदले कोई अन्य पौष्टिक तत्त्व उसी रूप-रंग का राजा साहब को सेवन कराती जिस से शनैः शनैः राजा के शरीर में संखिया का जो विषैला प्रभाव था वह दूर होता गया।
राजा साहब को तो अब रानी का एक-एक शब्द वेद वचन था अर्थात् वह पूर्णतया उसके अधीनस्थ हो चुके थे। अब रानी कभी-कभी राजा जी को राज दरबार में भी भेजने लगी। इस कार्य के करने में कुछ समय तो अवश्य लगा। मगर धीरे-धीरे अभ्यास कराते कराते राजा जी की प्रकृति और रंग-ढंग में काफी परिवर्तन हो गया ।
यहाँ तक कि अन्त में एक दिन राजा साहब से बिल्कुल संखिया छूट गया और राजा साहब कुछ के कुछ बन गये। अब वह पूर्ण रूपेण स्वस्थ हो गए और राज्य के कार्यों में भी बहुत दिलचस्पी लेने लगे। मन्त्री व अन्य कर्मचारी सभी रानी के इस जादू को देखकर चकित रह गए और उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे ।अन्त में सुअवसर पाकर रानी ने एक दिन हँसते-हँसते राजा से कहा- ‘महाराज ! मैं अपने अपराधों की आपसे क्षमा चाहती हूँ ।’
राजा – (आश्चर्य से) क्षमा ! अपराध ! तुमने कौन सा अपराध किया है ?
रानी – मैंने कई महीनों से आपको संखिया खिलाना बन्द कर रखा है ।
राजा – (निःस्तब्ध होकर) कई महीनों से !
रानी – जी हाँ, महीनों से ।
राजा – और मुझे ज्ञात भी न होने पाया ?
रानी – स्वामिन ! आपको उस समय बताना उचित न समझा ।
राजा – वह क्यों कर ?
रानी-इसलिए कि उस अवस्था में आप मेरी कभी न सुनते । संखिये के विषैले नशे ने आपके शरीर, दिल व दिमाग को झकझोर दिया था। उससे आपके शरीर में किसी प्रकार की ताकत न रहकर प्रमाद ने डेरा लगा रखा था। आपकी राज्य कार्यों में अरुचि होने के कारण शासन व्यवस्था शिथिल पड़ने लगी थी।
तब मुख्य मन्त्री ने मुझसे कहा कि अगर आपका यही हाल रहा तो अन्य कोई भी सम्राट् हम पर आक्रमण कर सकता है। उधर मैंने मन्त्री के उचित परामर्श से सेना व राज्य के अन्य कामों की सुव्यवस्था कर दी ताकि बाहर से शत्रु हम पर आक्रमण न करने पावें और इधर स्वयं बड़ी सावधानी से इस कार्य में जुट गई कि धीरे धीरे आपसे संखिया का सेवन नितान्त छुड़वाना शुरु कर दिया जिससे आपके अन्दर का विष समूल शान्त हो जाए।
अब ईश्वर की अपार दया से आपकी संखिया खाने की आदत बिल्कुल छूट गई है और आप हर प्रकार से राज्य के कार्यों को भी सहर्ष करते हैं। मैंने जो आपसे अपने हाथों संखिया खिलाने की सेवा मांगी थी उसका यही अभिप्राय था कि जिससे ‘सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे’ तथा आपके ऐश- इशरत में भी किसी प्रकार से बाधा नहीं डाली।
यह सब काम मैंने आपकी दृष्टि से बचाकर किये हैं। इसलिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। रानी की इन बातों से राजा साहब बहुत प्रभावित हुए। रानी के कृतज्ञ होकर उसे हार्दिक प्रसन्नता से धन्यवाद देने लगे तथा आगे से प्रत्येक काम करने से पूर्व रानी से अनुमति (सलाह) अवश्य ले लेते।
इस दृष्टान्त से हमें यह ज्ञात होता है कि अच्छा अथवा बुरा जिस काम को भी रुचि देकर अभ्यास किया जाये, उसी में यह मनुष्य उन्नति के शिखर तक पहुँच सकता है। जिस तरह संखिया जैसे विष के सेवन का अभ्यास राजा साहब ने इतना बढ़ा लिया था कि वही उनका आहार बन गया था तथा रानी ने भी संखिया शनैः शनैः छुड़ाते-छुड़ाते राजा की इस बुराई को दूर कर दिया ।
इसी तरह जिज्ञासु को भी ‘सुरत-शब्द-योग’ में सुरति को लगाने का नियम बनाना चाहिये। जीव को अपनी सुरति को ऊपर की मन्ज़िलों पर ले जाने के लिए नियमपूर्वक भजन का अभ्यास करना चाहिये। जैसे-जैसे सुरति को भजन- ध्यान में अलौकिक रस आने लगेगा, वैसे-वैसे वह आप से आप ऊपर को उठेगी। जैसे कि-
इह रस छाडे उह रसु आवा ॥
उह रसु पीआ इह रसु नही भावा ॥
गुरुवाणी
जब तक जीव को संसार के सुखों में रस प्रतीत होता तब तक भजनाभ्यास में रस नहीं आता और जब भजनाभ्यास में रस आने लगता है तब सांसारिक सुख विष सदृश जान पड़ते हैं। मन को भजनाभ्यास में लगाने के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना परम आवश्यक है—
1. पूर्ण सन्त सद्गुरु जी से भजनाभ्यास की युक्ति सीखनी चाहिये, अपनी मर्ज़ी तथा पुस्तकीय ज्ञान से इस मार्ग पर चलने से कोई लाभ नहीं ।
2. समय की पाबन्दी अर्थात् निश्चित समय पर भजनाभ्यास के लिए आसन पर बैठ जाना चाहिये ।
3. कितना भी आवश्यक काम क्यों न हो परन्तु भजन- अभ्यास में अवकाश नहीं होना चाहिये ।
4. भजनाभ्यास के समय दिल को अन्य विचारों से शून्य करने का भरसक प्रयत्न करना चाहिये ।
5. खाने-पीने, उठने-बैठने, बोल-चाल पर भी संयम होना चाहिये ।
6. इस भजनाभ्यास की सफलता पर जिज्ञासु को कभी भी मान अथवा अहंकार नहीं करना चाहिये ।
इन बातों का नियमानुसार पालन करने से मन के ऊपर जो मल-विक्षेप-आवरण के तीन पर्दे चढ़े हुए हैं वे स्वतः दूर हो जायेंगे और आत्मा का साक्षात्कार हो सकेगा ।