एकता में बल है
किशानू दर्जी बहुत अच्छी सिलाई करता था। उसकी सुई और उसका धागा जब दोनों मिलते तो सिलाई होती। कई बार धागा छोटा रह जाता तो किशानू उसे फैंक देता या किसी दूसरे धागे के साथ जोड़ देता।
यह देख कर सुई को बड़ी हंसी आती। वह धागे को चिढ़ाती, “मेरे बिना तेरी कोई कीमत नहीं है। तेरी कीमत तभी होती है जब तू पूंछ की तरह मेरे साथ लटकता है।” धागा सीधा-सादा होने के कारण कुछ नहीं बोलता।
एक दिन किशानू का वह धागा और वह सुई कहीं खो गए। सुई कूड़े के साथ घर से बाहर चली गई। वह कूड़े के ढेर में कई दिन तक पड़ी रही। एक दिन जोर से आंधी आई। कूड़े का ढेर उड़ गया।
सुई कई दिन तक वहीं पड़ी रही। एक दिन फिर तेज हवा चली तो उसी सुई का साथी वह धागा उड़ता हुआ आया और सुई के पास लकड़ी के एक टुकड़े पर आकर अटक गया।
धागे ने सुई को पहचान लिया। बोला, “बहन, तुम्हारे बिना मैं तो किसी के काम नहीं आया। मैं समझ गया कि मेरी कीमत तुम्हारे साथ रहने में है। पर, बताओ इन दिनों तुमने किस-किस के क्या काम किए?” सुई बोली, “नहीं।”
धागे ने फिर पूछा तो सुई बोली, “कुछ नहीं किया मैंने। किसी के काम नहीं आई मैं। हवा आंधी बनकर चली तो मैं रोशनी में आई हूं।”
धागा बोला, “हम दोनों दूर-दूर रहकर बेकार हो गए। मैं भी किसी के काम नहीं आया। बस हवा के साथ-साथ इधर-उधर उड़ता रहा ।
उनकी बात बंद हो गई क्योंकि वहां पर कुछ लोग आ गए थे। उनमें एक बच्चा भी था, जो रो रहा था और एड़ी उठाकर चल रहा था। उस बच्चे के पैर में कांटा चुभ गया था। बिना सुई के निकल नहीं रहा था और उनके पास सुई नहीं थी।
वहां आने पर अचानक एक की निगाह सुई पर चली गई और वह चीखा, “अरे देखो वहां एक सुई पड़ी है उससे कांटा निकल जाएगा।” दूसरा बोला, “नहीं-नहीं, जमीन पर कूड़े में गिरी हुई सुई यूं ही इस्तेमाल नहीं की जा सकती। पहले पानी-साबुन आदि से अच्छी तरह साफ की जानी चाहिए।”
ऐसा ही किया गया। सुई से भी बड़ी मुश्किल से कांटा निकला। कांटा निकलते ही वहां से खून बहने लगा। किसी ने कहा, “इस पर पट्टी बांध दी जाए तो खून बहना बंद हो जाएगा। उन लोगों के पास पट्टी नहीं थी। पट्टी के नाम पर कपड़े का एक छोटा टुकड़ा था। इतना छोटा कि वह एड़ी पर बांधना मुश्किल था। क्या करें ?”
अचानक लकड़ी के टुकड़े पर झूलते धागे को देख लिया गया। एक चिल्लाया अरे देखो, कितना लम्बा धागा है। इस छोटे कपड़े को उस बहते खून पर रख दो और धागे से बांध दो। ऐसा ही किया गया। एक ने सुई को भी नहीं फैंका। वह जानता था कि यह भी कांटे की तरह किसी को चुभकर घायल कर सकती है।
अब सुई-धागा दोनों उन लोगों के घर में जाकर रहने लगे। सुई को एक डिबिया में रखा गया और धागे को भी साफ करके, सुखा करके उसी डिबिया में रख दिया गया।
सुई ने सकुचाते हुए कहा, “अब मैं समझ गई कि जैसी जरूरत मेरी है, वैसी ही तेरी भी है।”
धागे ने कहा, “हां बहन, मैं तो पहले ही मानता था कि जब हम दोनों मिल जाएं तो बड़ी जरूरत भी पूरी कर देते हैं। जब हम कपड़ों के दो टुकड़ों को जोड़ कर एक
कर देते हैं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है।”सुई बोली, “मुझे भी। मैं समझ गई कि एक होने में जो मजा है वह बिखरने में नहीं।”
-गोविंद शर्मा
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