आनन्द का अर्थ क्या है
आयु की स्वर्णिम व उन्मादयुक्त घड़ियों में यौवन, मस्ती में भर देने वाली पुष्पों की सुन्दरता एवं सुगन्ध, प्रातःकाल के सुखद आगमन का प्रतीक भोर का तारा, ऋतुओं में रंग भरने वाला बसन्त, रात्रि की शोभा को बढ़ाने वाला चाँद, ये सब अपने-अपने विभागों में आनन्द के प्रदाता हैं।
इनका आगमन ही आनन्दकारी तथा सुखद है। इनका नाम लेने मात्र से अनायास ही मुँह से निकलता है कि ओह कितना मादक यौवन है, कितनी मधुर सुगन्ध है, कितनी प्यारी भोर है। कितना सुहावना मौसम है, पूर्णिमा के चांद से रात्रि भी नशीली बन जाती है। इस ‘आनन्द’ शब्द ने प्रत्येक प्राणी के हृदय में हलचल मचा रखी है। इसी ‘जीवन के आनन्द’ को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक प्राणी लालायित रहता है ।
यही धुन हृदय की पुकार तथा अन्तरात्मा की खोज में सवार रहती है कि दुःख – चिन्ता से मुक्ति मिले एवं आनन्द से जीवन व्यतीत हो । सोचिए और विचार कीजिए कि यह आनन्द वस्तु क्या है जो ढूँढने पर भी नहीं मिलती। इसका विषय यही है कि:-
मानव का मन रसिक है। इसे नीरसता तो प्रिय ही नहीं । चित्ताकर्षक, विमोहक दृश्यों एवं पदार्थों की ओर यह अनायास ही आकृष्ट हो जाता है। किसी नई और अनोखी वस्तु को देखकर मोहित हो जाता है । नित्य नई वस्तुओं और नई इच्छाओं की पूर्ति में जुटा रहता है । पाँच ज्ञानेन्द्रियां तथा पाँच कर्मेन्द्रियों एवं मन के वशीभूत होकर यह सर्वदा किसी न किसी रस में लीन रहता है ।
वह वस्तु भी यही है जो इसे हर समय उन्मत्त (पागल बनाये रखती है। इन रसों के पीछे एक गुप्त शक्ति कार्य कर रही है जिसे आनन्द अथवा सुख भी कहते हैं । इन रसों के आस्वादन पर क्षण भर के लिए आनन्द की अनुभूति होती है। यही कारण है कि:-
मानव का मन नित्य नए सुखैश्वर्यों को जुटाने के साधनों में दिन-रात चौबीस घन्टे दौड़-धूप करता रहता है। प्रतिपल नए रसों का आस्वादन करते हुए भी इसे तृप्ति नहीं मिलती । यह सदा असन्तुष्ट ही रहता है। गिरगिट की न्याईं रंग बदलता रहता है । बन्दर की न्याईं सदा चंचल रहता है।
एक इच्छा के पूरा होने से पहले ही हज़ारों-लाखों इच्छाएं अपना दामन फैलाए अन्य रसों की उमंग लिए उपस्थित हो जाती हैं। एक पदार्थ का रसास्वादन करने के पश्चात् इसे वह रस नीरस तथा फीका अनुभव होता है।
कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि किसी रस से दिल बिल्कुल ऊब भी जाता है। परन्तु फिर इसके अन्तर्मानस में किसी गुप्त रस की पिपासा बनी रहती है। क्या कभी मनुष्य ने यह सोचा है कि ऐसा क्यों होता है ?
यह मन किस वस्तु के लिए छटपटाता है, किस पदार्थ के लिए लालायित रहता है । अन्तरात्मा की पुकार क्या चाहती है जिसको प्राप्त करने की आकांक्षा इसे सदैव बनी रहती है।
वास्तव में मानव की आन्तरिक पुकार एकरस दिव्य अखण्ड आनन्द को प्राप्त करने को लालायित रहती है । उसी की खोज तथा उत्कण्ठा इसे बनी रहती है। परन्तु होता क्या है कि यह मनुष्य सांसारिक सुखैश्वर्य, रसभोग – जिनमें क्षणिक सुख और आनन्द की प्राप्ति होती है, जो पानी के बुलबुले की तरह शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाला होता है – बार-बार इन्हीं रसों की ओर दौड़ता है।
यह रस एक क्षण के लिए सुख रूप बनकर पुनः सदा-सदा के लिए दुःख रूप बन जाते हैं । फिर देखो इन रसों का फल – जीवन भर के लिए चिन्ता परेशानी का शिकार बना देते हैं। आहें भरना, परमात्मा से शिकायत करना, अपने जीवन से तंग आ जाना अथवा दुविधा में पड़े रहना इसके अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त नहीं होता।
एक रस से मन ऊब गया, उस रस के दुःख से अभी छुटकारा ही नहीं मिलता कि अन्य रस ने अपना प्रभाव डाल दिया। अब यह नया रस सुख रूप भासने लगा । इसी में रम कर पिछले दुःख को भुलाने का प्रयत्न करने लगा परन्तु क्षणिक सुख मिलने के पश्चात् फिर वही कुछ हुआ जो होना था – क्या ?
कि वह रस बादल की बिजली की तरह चकाचौंध में डालकर पुनः बादल में विलीन हो गया और शेष रह गया दुःख व गम चिन्ताओं का अन्धेरा ।इन्हीं रसों का ही दूसरा नाम है विषय भोग ।
इसी देह में ही मन और आत्मा दोनों का समावेश है। मन विषय रसों का अभिलाषी है और आत्मा एक अखण्ड दिव्य रस की । आत्मा स्वयं भी एक रस, आनन्द, सुख, शान्ति का भण्डार है। आनन्द मानव जीवन का विशेष अंग है ।
एक ही देह में मन और आत्मा का समावेश होने के कारण आत्मा का प्रतिबिम्ब मन पर पड़ता है। यही कारण है। कि मन विशेष भोगों में लिप्त होते हुए किसी अन्य सुख को प्राप्त करने की चेष्टा भी करता है।
इससे स्पष्ट है कि हमारी आत्मा सर्वोच्च तथा सर्वोत्कृष्ट आनन्द का भण्डार है । अन्तरात्मा की भीतरी इच्छा को पूरा करने के लिए सांसारिक भोग पदार्थों से मिलने वाला आनन्द असमर्थ है।
अन्तरात्मा की चिराभिलाषा को पूर्ण करने वाला सच्चा आनन्द भक्ति और प्रेम के रस में है । यह रस अथवा आनन्द दुनियावी किसी भी पदार्थ से प्राप्त नहीं हो सकता ।
आनन्द यह रस ऐसा अलौकिक और अवर्णनीय है जिसका वर्णन जिह्वा द्वारा भाषण देने से अथवा लेखनी द्वारा शब्दों में बद्ध नहीं किया जा सकता। यह रस वह अमूल्य जड़ी है जिसके अनुपान से हृदय शान्त व स्थिर हो जाता है । चित्तवृत्तियां स्थिर हो जाती हैं । जीव अपनी ही मस्ती में खोया रहता है। उसे चिन्ता, क्लेश – कल्पना, ईर्ष्या-द्वेष आदिक नहीं व्यापते अथवा यह कहा जाए कि जीव अमर पद को प्राप्त कर लेता है अर्थात् आत्मा का परमात्मा से मिलाप होकर एकरूप हो जाता है।
ध्यान देने योग्य बात भी यही है कि कहाँ तो विकारों की अग्नि में झुलस कर आधि-व्याधि-उपाधि का शिकार बनना और कहाँ इन तीनों तापों से छुटकारा पाकर एक अखण्ड आनन्द में सुखमयी जीवन व्यतीत करना । कितना – क्या कोई प्राणी दुःखी रहना चाहता है ?
कौन अन्तर है – क्या कोई चाहता है कि मेरा हृदय हर समय चिन्ताओं का शिकार बना रहे । किसको यह प्रिय लगता है कि मेरा शरीर रोगों का घर बना रहे। प्रत्येक प्राणी की यही इच्छा होती है कि वह निरोग, स्वस्थ और चिन्ताओं से विमुक्त रहे। ऐसी आन्तरिक इच्छा होने पर भी न जाने सुखी मार्ग को क्यों नहीं अपनाता ?
इसी दिव्य आनन्द की खोज में अथवा सुखी बनने के लिए तपीश्वर तप से, ज्ञानी ज्ञान से, ऋषि मुनि विषयों से वैराग्य धारण कर प्रभु चिन्तन से तथा योगी योग-बल से प्राप्त करने में संलग्न रहते हैं। इसी दिव्य आनन्द की खोज के लिए महात्मा गौतम बुद्ध ने सांसारिक सुखैश्वर्यों से मुँह मोड़ा।
राजपाट, महल- माड़ियां, रानियां-दासियां अर्थात् समस्त मायावी सुखैश्वर्य के साधनों को ठुकराया । अन्य कई आनन्द के अभिलाषियों ने विषय रसों का त्याग कर कठिन साधनायें कीं। ये सब एक ही मंज़िल के भिन्न-भिन्न साधन हैं जिनमें अत्यधिक यातनाओं को झेलना पड़ता है।
जप-तप-संयम साधन करने का अभिप्राय केवल दिव्य अखण्ड ‘आनन्द की खोज’ है। इसकी खोज करनी तो आवश्यक है कि इस आनन्द को प्राप्त करने का कोई सुगम मार्ग है? और यह वास्तविक सुख कहाँ से प्राप्त होगा ? हां, सुगम और सर्वोत्तम मार्ग है – गुरु भक्ति का । यह वास्तविक सुख का मार्ग पूर्ण सद्गुरु से ही मिलता है जिस पर चलकर सर्वसाधारण जीव भी लाभ उठा सकता है।
आनंद आनंद सभु को कहै आनंदु गुरू ते जाणिआ ||
(गुरुवाणी)
यह प्रकृति का नियम है कि जिसके पास जो वस्तु होगी, उससे वही कुछ प्राप्त हो सकता है। इत्र, फुलेलादि- विक्रेता से यदि कोई सोना खरीदना चाहे तो क्या उसे प्राप्त हो सकेगा ? कदापि नहीं। उससे तो सुगन्धमय वस्तुयें ही प्राप्त की जा सकती हैं।
इस प्रकार वास्तविक सुख की अनुभूति पूर्ण सद्गुरु ही करा सकते हैं क्योंकि वे आत्मा का साक्षात्कार कर चुके हैं। उन्हीं के भण्डार से ही अध्यात्म ज्ञान की प्राप्ति होगी। उनकी भक्ति एवं प्रेम में दिल रंगने का नाम ही गुरुभक्ति है । इस वास्तविक सुख का मार्ग उन्हीं के द्वार पर जाने से ही मिलना संभव है। इस आनन्द की अनुभूति हो जाने पर ही संसार के सभी रस फीके और नीरस प्रतीत होते हैं। मोह माया के जंजालों से विमुक्त होने का मार्ग यही है ।
सत्पुरुष अपनी वाणी में वर्णन करते हैं कि :-
घरे अंदर भुवथु है बाहरि किछु नाही ॥ गुर परसादी पाईऐ अंतरि कपट खुलाही ॥ सतिगुर ते हरि पाईऐ भाई ॥ अंतरि नाम निधानु है पूरै सतिगुरि दीआ दिखाई ||
गुरुवाणी
अर्थात् ऐ जीव ! जिस वस्तु की खोज तू बाहर करता है वह तेरे अन्दर ही है, परन्तु सद्गुरु की कृपा से ही इसका भेद पता चल सकता है क्योंकि उनकी कृपा से अन्दर के किवाड़ खुलते हैं । अन्दर नाम का अखुट भण्डार है जिसे सद्गुरु ही दिखा सकते हैं । अर्थात् आनन्द के भण्डार की कुंजी सद्गुरु के पास ही है ।
यह जीव परमात्मा का अंश है। परमात्मा आनन्दस्वरूप है तो यह जीव भी उसी का अंश आनन्द रूप ही हुआ, परन्तु वास्तव में ऐसा क्यों नहीं ? इसीलिए नहीं कि जब यह जीव संसार में आता है तो यहां की रचना जो माया से सनी हुई है, उससे मिलकर माया रूप बन जाता है।
मन जीव को धोखे में डालकर तुच्छ रसों से आत्मा की मांग पूरी करना चाहता है । मन यह कपटमयी खेल अनेक जन्मों से आत्मा के साथ खेलता रहा है और खेलता रहता है। जिस प्रकार देह में किसी संक्रामक रोग के कीटाणु दो चार भी प्रविष्ट हो जायें तो शरीर पर उस रोग के चिन्ह प्रतीत होते हैं। यदि शरीर की ओर ध्यान ही न दिया जाए तो वे कीटाणु असंख्य होकर शारीरिक स्वास्थ्य तथा सुन्दरता को नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं ।
उस असाध्य रोग की चिकित्सा किसी कुशाग्र डाक्टर से करवानी आवश्यक हो जाती है। इसी प्रकार माया के कीटाणुओं ने बढ़कर जीवात्मा को रुग्ण बना दिया है जिससे अपने आत्मिक आनन्द का ध्यान ही भूल गया है। इस मानसिक अथवा आत्मिक असाध्य रोग की चिकित्सा के लिए आत्मिक वैद्य सन्त सद्गुरु के पास जाना ही पड़ेगा। वे ही इस असाध्य रोग का समूल नाश करने में समर्थ हैं। जैसा श्रीरामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में लिखा हुआ है:-
॥ चौपाई ॥
राम कृपाँ नासहिं सब रोगा । जौं एहि भाँति बनै संयोगा ॥ सदगुर बैद बचन बिस्वासा । संजम यह न बिषय के आसा ॥
गीता में भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी महाराज ने भी परम सखा अर्जुन को यही उपदेश दिया है कि:-
॥ श्लोक ॥
यतो यतो निश्चरित मनश्चञ्चलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥ प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् । उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमेकल्मषम् ॥
अर्थात् जिसका मन अस्थिर और चंचल है अर्थात् वश में नहीं हुआ, वह जिस जिस कारण से संसार में विचरता है उसे उससे हटाकर इस आत्मा में लगावे क्योंकि जिसका मन अच्छी तरह से शान्त है और पाप रहित है – जिसका रजोगुण शान्त हो गया है, ऐसे सच्चिदानन्दघन ब्रह्म के साथ एकीकरण हुए जीव को अत्युत्तम आनन्द प्राप्त होता है ।
जैसे कि पहले भी कहा जा चुका है कि दिव्य आनन्द के प्रदाता पूर्ण सद्गुरु की संगति से ही वास्तविक एक रस आनन्द की प्राप्ति होगी। सन्त सद्गुरु मालिक के अग्रदूत, पथ-प्रदर्शक तथा आत्म- आनन्द के धनी होते हैं ।
अतः इस दिव्य एक रस अखण्ड आनन्द की प्राप्ति सद्गुरु के बताए हुए मार्ग पर चलकर प्रेम भक्ति में लीन होने से मिलेगी । आओ ! हम उन विषयों पर गहन विचार करें जिन मार्गों से हमें गुज़रना है। परमात्मा की कृपा, अमूल्य जन्म की प्राप्ति के साथ-साथ जीवन का पर्यवेक्षण करते हुए लक्ष्य पर पहुँचने का प्रयत्न करें।
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