सतगुरु की आज्ञा का पालन
हममें असंख्य कमियां हैं और उनमें से अनेकों को हम जानते भी हैं। परन्तु इन कमजोरियों को दूर करना मनुष्य की अपनी सामर्थ्य से बाहर है। इस कार्य के लिए उसे किसी दूसरे की सहायता और निर्देशन की आवश्यकता होती है।
क्या उसके सम्बन्धी या मित्र उसकी इस कार्य में सहायता कर सकते है?
नहीं-वह स्वयं ही संसार में फंसे हुए होते हैं।
तब फिर सहायता के लिए किसके पास जाना चाहिए ?
केवल पूर्ण सन्त-सद्गुरु ही हैं जो दयालु और सभी के शुभ चिन्तक हैं और हमें दूषित विचारों और काम-वासनाओं की दलदल से बाहर निकालने में समर्थ हैं। केवल वही हमें भक्ति मार्ग का सही ज्ञान दे सकते हैं।यदि हम स्वयं को उनके वचनों का श्रद्धा-भक्ति से पालन करने योग्य बना लें तो यह (संसार रूपी) खेल हमारा ही है। जब तक हमारी बुद्धि मालिक के वचनों का पालन करने में रुकावट डालती है, हम अपने लक्ष्य में सफल नहीं हो सकते।
इस विषय के स्पष्टीकरण के लिए एक दृष्टांत दिया जाता है :-
एक बार एक राजा ने यह राजकीय घोषणा करवाई कि वह किसी भी रात को अमुक गाँव में आयेगा और जिस घर में दीपक जल रहा होगा, वह उसी घर में आयेगा और उसे सम्मानित करेगा तथा उसे सुख-सुविधाओं से भरपूर कर देगा।सारे गाँव के लिए यह एक बड़ी खुशी की बात थी और गाँव के विशिष्ट लोगों के लिए विशेषकर।
गाँव के लोगों ने अपने घर साफ करने और सजाने शुरु कर दिए ताकि राजा अप्रसन्न न हो। उन्होंने सारी रात सुन्दर रोशनियां जलाने का प्रबन्ध किया और सभी ने राजा द्वारा पूर्ण की जाने वाली अपनी मांगों की सूची भी बना ली।
उसी गाँव में अत्यधिक जनसंख्या वाले क्षेत्र से थोड़ी दूरी पर एक बुढ़िया रहती थी, जिसका निर्वाह पेंशन से होता था जो उसे उसके मृत पति की नौकरी के फलस्वरूप राजकोष से 65 रु मिलती थी।
उसने भी अपने गाँव में राजा के आगमन की खबर सुनी।उस की कोई मांग तो थी नहीं जो वह राजा की घोषणा का पालन करती फिर भी वह सारी रात दीपक बलाये रखती। दिन व्यतीत होते गये परन्तु राजा नहीं आया। राजा के आने में ज्यों-ज्यों देर होती गई, लोगों की मांगों कीसूचियां भी बढ़ती गईं।
गाँव के मुखिया लोगों ने सोचा कि सारी रात दीपक जलाये रखना ऐसे ही तेल को व्यर्थ गंवाना है। उन लोगों का निश्चय था कि राजा उनकी हवेली में अवश्य आयेगा क्योंकि वे गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। उन्होंने विचार किया कि राजा के रथ के पहिये की खड़खड़ की आवाज़ को दूर से ही सुनकर हम अपने दीपक जला लेंगे।
उन की औरतें उस बुढ़िया का मज़ाक उड़ाया करतीं और कहती-“इस बुढ़िया को तो: देखो। इसे आशा है कि राजा इसी की टूटी-फूटी झोंपड़ी में आयेगा और इसलिए यह सारी रात दीपक जला कर तेल व्यर्थ गंवा रही है।
बूढ़ी औरत ने आज्ञा का पालन कैसे किया ?
” वह बूढ़ी औरत उनके तीखे उपहासों की परवाह किये बिना कहा करती, “मुझे तो केवल राजा की आज्ञा से मतलब है और उसकी आज्ञा का पालन करना मेरा एकमात्र कर्तव्य है।”
उसने सोचा कि राजा लम्बी यात्रा के बाद गांव में प्रवेश करने से पहले शायद थोड़ी देर विश्राम करना चाहे और इसलिए वह थोड़ी देर के लिए उसके घर आकर उसे कृतार्थ करे। ऐसे मौके के लिए उसकी आवभगत के लिए वह थोड़ा दूध लेकर और उसे गर्म करके राजा के पीने के लिए रख छोड़ती लेकिन राजा नहीं आया तो भी वह बुढ़िया निराश नहीं हुई। उसने अपना नियम प्रतिदिन जारी रखा।
वास्तव में राजा प्रतिदिन भेड़ चराने वाले के भेष में छिप कर रात को उसके घर आया करता और उससे कुछ खाने के लिए मांगा करता था। वह उसे पड़ा हुआ दूध पीने के लिए दे दिया करती।
केवल उसी बुढ़िया की झोंपड़ी में दीपक जला हुआ देखकर भेष बदल कर वह राजा अन्य सभी के घरों को छोड़कर केवल उसी के घर आ कर उसे कृतार्थ किया करता था।
राजा ही उसके घर प्रतिदिन भेष बदल कर आता है, बुढ़िया को यह ज्ञात नहीं था और यह क्रम कई दिन तक चलता रहा। भोलेपन से वह भेड़ों की रखवाली करने वाले का स्वागत किया करती और वह दूध उसे पीने के लिए दे दिया करती।
कुछ दिनों बाद राजा ने उस बुढ़िया को अपने दरबार में लाने के लिए अपने मंत्री को भेजा। जब शाही रथ उसके द्वार पर आ कर रुका तथा मंत्री ने उस बुढ़िया को सम्मानपूर्वक रथ में बिठाया तो गांव वालों का सिर शर्म से झुक गया।
बुढ़िया को राजा के सामने लाया गया तो राजा ने बड़े प्रेमपूर्वक उसका स्वागत किया और कहा कि मांगो क्या मांगती हो। बुढ़िया ने बड़ी ही नम्रता-पूर्वक कहा, “राजन्! मुझे तो पहले ही पेंशन के रूप में राजकोष से पर्याप्त धन मिल रहा है जो मेरे निर्वाह के लिए बहुत है। मुझे और कुछ नहीं चाहिए। मैं स्वयं को बहुत भाग्यशाली समझती हूँ क्योंकि आप जैसे महान् राजा मेरे साथ बड़े सम्मान से बातचीत कर रहे हैं।
राजा बहुत प्रसन्न हआ और उसने उसकी पेंशन की रकम बढ़ा दी तथा शेष आयु रहने के लिए सुख-सुविधाओं से सम्पन्न एक बंगला उसे दे दिया।
यहां एक बात समझने योग्य है। प्रतिष्ठित बड़े लोगों ने जिन्होंने राजा की आज्ञा पालन करने में बुद्धि का प्रयोग किया था, राजा द्वारा कृपा के पात्र नहीं बने। परन्तु उस बुढ़िया ने अपनी बुद्धि को राजा की मौज पर छोड़ दिया था, इसलिए वह सफल हो गई और राजा द्वारा सम्मानित हुई।