अनहद नाद के बारे में सत्पुरुष अपनी वाणी में कथन करते हैं –
सत्पुरुष फ़रमाते हैं कि आँखें, कान और मुख बंद करके अंतर में अनहद शब्द सुनने से वह शब्द तुम्हारी सुरति को पिण्ड देश से निकालकर ब्रह्मांड की सैर करवा देगा। अंतर के कपाट खुल जाने से हृदय रोशन हो जाएगा। किन्तु ये पट खुलते तब हैं जब जीव अपनी सुरति को बाह्य भौतिक जगत से हटाकर अन्तर्मुखी कर लेता है।
कथा है – एक राजा के राज्य में एक पूर्ण महात्मा जी का आना हुआ।
वे भिक्षाटन करके जीवन निर्वाह करते थे। वे प्रायः शाम को सत्संग किया करते जिसे सुनने के लिए हज़ारों लोग एकत्रित हो जाया करते थे।
धीरे धीरे उनकी ख्याति राजा के कानों में भी पड़ी। राजा ने अपने वज़ीर को कहा कि जाओ और उन महात्मा जी को आदर सहित महल में ले आओ। आज्ञा पाकर वज़ीर उन महात्मा जी के चरणों में उपस्थित हुआ और उन्हें राजा के महल में पधारने व भोजन ग्रहण करने के लिए विनती करने लगा।
महात्मा जी ने कहा कि मुझे पास ही के घरों में से जिसका द्वार पहले खुला मिल जाता है, वहाँ से जो भिक्षा मिले । उसे ही पर्याप्त जान ग्रहण कर लेता हूँ। मेरा यही नियम इसलिए मैं राजा साहिब के यहाँ नहीं आ सकता।
राजा को जब पता चला तो उसने अपने राज्य में ढिंढोरा पिटवा दिया कि कल सब अपने घर के द्वार बंद रखें। रोज़ की भांति महात्मा जी जैसे ही घर से निकले. सभी द्वार बंद देखकर आगे की ओर बढ़ते गए। चलते चलते वे राजमहल तक आ पहुँचे।
राजमहल का द्वार खुला देख वहीं भिक्षा लेने हेतु अंदर चले गए। राजा तो पहले से ही प्रतीक्षा कर रहा था। उसने बड़ी श्रद्धा से उन्हें भोजन करवाया और फिर आत्मिक उन्नति का साधन पूछा।
महात्मा जी ने मुसकराते हुए फ़रमाया कि जिस प्रकार आपने हमें यहाँ बुला लिया है इसी प्रकार आप भगवान को भी अपने पास बुला सकते हैं।
राजा ने विनती की कि कृपया मुझे सब स्पष्ट कर बतलाएं कि मैं भगवान को किस प्रकार से पा सकता हूँ ?
महात्मा जी ने कहा कि जिस प्रकार आपने राज्य के सभी द्वार बंद करवा कर केवल अपना ही द्वार खुला रखा और मैं घूमते घूमते सहज ही आपके महल में प्रवेश कर गया। वैसे ही आप अपने शरीर रूपी नगर के सभी ब्राह्य द्वार बंद करके केवल अंदर का एक ही द्वार खुला रखोगे तो मालिक स्वयंमेव ही उसमें प्रवेश कर जाएंगे।
सन्त सहजो बाई जी अपनी वाणी में वर्णन करती हैं :
तीनों बंध लगाय के, अनहद सुनै टकोर ।
सहजो सुन्न समाधि में, नहीं साँझ नहिं भोर ॥