अध्यात्म
दो मनुष्यों के दिल आपस में मिले हुए होते हैं। किन्तु जब किसी कारण से मन फट जाते हैं तो पास और साथ रहने पर भी दोनों का मन अलग- अलग हो जाता है। दृष्टान्त के तौर पर दूध और जल को ले लो जो आपस में मिले रहते हैं, परन्तु दूध को मथकर निकाला गया मक्खन सदैव जल में पड़ा रहे तब भी जल में मिलता नहीं। इसी तरह ज्ञानरूपी मथानी द्वारा जो मन संसार से अलग हो जाता है वह संसार में रहता हुआ भी संसार के लिए नहीं रहता। उससे कोई ऐसा कर्म नहीं बनता जिससे फल की आशा हो या आगे के लिए संचित हो सके। उसका शरीर ऐसे काम करता है जैसे कुम्हार खाली चाक को चलाकर छोड़ दे तो उससे बर्तन नहीं बन सकते परन्तु वह चाक घूमता अवश्य रहेगा। इसी तरह से ज्ञानी की शरीर यात्रा होती रहती है परन्तु आगे के लिए कर्म नहीं बनते।
सेवा
सेवा करने का इच्छुक स्वामी के पास जाकर अपना मनोरथ कह देता है कि मैं आपकी सेवा करना चाहता हूँ और स्वामी उसको स्वीकार कर लेता है। फिर सेवक को गुरु और स्वामी से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती। स्वामी स्वयं ही उसके खान-पान, भरण-पोषण की देखभाल करता है। बीमार हो तो उसकी दवा-दारू का प्रबन्ध करता है। सेवक तो हर समय अपने स्वामी की ओर आँख, कान और ध्यान लगाये बैठा रहता है और यह प्रतीक्षा करता है कि स्वामी क्या आज्ञा करते हैं। जिसको सुनकर शीघ्र पूरा करूँ।
माला फेरना मुख से, कंठ से या हृदय से जाप करना भी महात्माओं का बताया रास्ता है। भक्त को ईश्वरपरायण हो जाना चाहिए और ईश्वर की ओर ही ध्यान लगाए रखना चाहिए। फिर तो हर सेवा के लिए ईश्वर की ओर से ही आज्ञा होगी। उसको हित-चित से सुने। उसकी आवाज की तरफ ही ध्यान लगाए रहे। भजन के ठीक होने का चिह्न यही है। फल यह होगा कि-
कर का जपूँ न मन का जपूँ, मुख से कहूँ न राम। राम हमारो हमें भजे, हम पायो विश्राम ।।
वेद
वेद, उपनिषद, शास्त्र, पुराण, ऋषी, अवतार सबने ब्रह्म को अकथनीय, अलख, अगोचर, अनामी, अनन्त कहा है। जब यह बात है तो उसको मनुष्य कैसे पहचान सकता है। जिसको न देखा हो और न पहचाना हो उसकी उपासना कैसे करें ? सुख या आनन्द रस ऐसा है जिसका अनुभव हर जीव को होता है। इसीलिये वह हर हाल और हर सूरत में आनन्द की तलाश करता है। लिहाजा हर जीव आनन्द का पुजारी है। और यह पूजा शक्ति अनुसार यानि प्रकृति और स्वभाव के अनुसार आनन्द के अनुभव से ही आरम्भ होती है।
आनन्द चाहे छोटे से छोटे दर्जे का हो या उत्तम से उत्तम अथवा मध्यम दर्जे का हो, वह लगातार पूजा के जरिये सिलसिलेवार उन्नति करता जाता है। जब संसार के सम्पूर्ण विषयों के आनन्द में उसका बढ़ना – घटना प्रतीत होता है तो उसकी आत्मा का ठहराव किसी भी संसारी आनन्द से नहीं होता। वह तलाश करते-करते एक दिन ब्रह्मानन्द प्राप्त कर लेता है। उसकी तलाश पूरी हो जाती है और आनन्द की इच्छा का अन्त होता है। यह उसकी पूजा का अन्त या पूर्णावस्था है। इसलिये यह कुल संसार आनन्द का पुजारी है।
लोक और परलोक
लोक और परलोक दो अलग-अलग चीजें मान ली गई हैं। इसलिये उनकी मर्यादा और कर्म का फल अलग-अलग प्रतीत होता है। इस लोक की मर्यादा के मुताबिक काम न करने से दुनिया में नुकसान उठाना पड़ता है। परलोक की मर्यादा और कानूनों पर न चलने से आकबत बिगड़ जाती है। हर व्यक्ति की प्रकृति और स्वभाव को तीन गुणों में से किसी न किसी गुण के अधीन मानना पड़ेगा। सात्विक स्वभाव को उत्तम, राजस को मध्यम और तामसी स्वभाव को अधम करके माना है। इनके फल भी इसी तरह से उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ रखे गये हैं। जबतक आपा है तबतक अहंकार है। जब आपा बिसरे तब अहंकार शान्त होगा। विद्या, विवेक और निष्काम कर्म सब बातों को प्रारब्ध और ईश्वरेच्छा पर निर्भर समझने का भाव दृढ़ हो जाय तो अहंकार और उसके अधीन होनेवाले मानसिक दुख स्वतः शान्त होंगे।
निर्वाण
निर्वाण ऐसी ही अवस्था है जिसमें हर मनुष्य अपना आप होता है फिर भी दूसरों को अपने आप में इस तरह मिला हुआ प्रतीत करता है, जैसे सच्चे प्रिय और प्रियतम । पृथकता और मेरा-तेरा का पता नहीं लगता। एक धीमी गुंजार इस लोक से आया करती है जिससे साधक को इच्छित वस्तु की प्राप्ति का आनन्द प्रतीत होता है । बजाय अकेलापन प्रतीत होने के उसको मिलाप का आनन्द प्रतीत होता है। यह भी आनन्दमय कोष माना गया है। शुद्ध, निष्काम, सबके हित के लिए, प्रति उपकार न चाहकर पक्षपात से रहित ऐसा प्रेम उत्पन्न होता है जिसमें सबकुछ दिया ही जाता है, लिया कुछ नहीं जाता। वह दैवी सम्पदा का ऊँचा गुण है। जहाँ ऐसा प्रेम दीख पड़े वहाँ समझ लेना चाहिये कि आनन्द शक्ति जाग रही है और वहाँ रूपवान आनन्दमय कोष बन रहा है जिसमें दुई के सब बन्धन टूटकर जीवन में इकाई का आनन्द अनुभव होता है।
निर्वाण को विनाश नहीं समझना चाहिये। निर्वाण की अवस्था नाश से विलक्षण है। यह एक प्रकार का जोरदार जीवन है जिसको इन्द्रियाँ और मन नहीं पा सकते। निर्वाण में वह शक्तिवान आत्मा रहती है जिन्होंने पिछले जन्मों में विकास को पूरा कर लिया है और शब्द ब्रह्म के जहूर के साथ इस संसार को प्रकट करने के लिए आये हैं।
देवलोक के स्वामी और नीचे के लोकों के प्रबन्ध कर्त्ता इसी स्थान पर रहते हैं। निर्वाण पद ब्रह्माण्ड का हृदय माना जाता है जहाँ से जीवन की लहरें निकलती हैं। विवेक सबसे बड़ा गुण है। बड़ों को पत्र लिखने में उर्दू में लिखते हैं, मेहरबान, कदरदान। अनाज के व्यापारी को अनाज की कदर, कपड़े के दुकानदार को कपड़े की पहचान, सुनार को जेवर में खरे-खोटे की निगाह, सर्राफ को सोने-चाँदी की जाँच, जौहरी को जवाहरात और पत्थरों तक की निरख-परख होनी चाहिये, वरना काम बिगड़ जावेगा।
मनुष्यों में सबसे बड़ा राजा माना जाता है। उसको मनुष्यों की पहचान होनी चाहिए कि कौन कैसा है। सभी प्रकार के मनुष्यों से राजा को पाला पड़ता है। राजा कदरदान न हो, धोखा खा जाये तो राज उलट-पुलट हो जायेगा। साधु भी कदरदान होना चाहिये ताकि अपने विवेक द्वारा सत्-असत्, विनाशी और अविनाशी को समझकर सत्य को ग्रहण करे और असत्य का त्याग करे। अध्यात्म विद्या में मुमुक्षु में सबसे पहला लक्षण विवेक ही माना जाता है।
ध्यान
ध्यान उसी वस्तु का हो सकता है जिसको पहले कभी देखा हो और उसकी स्मृति हो या उसके रूप का कुछ हाल किसी से सुना हो या किसी पुस्तक में पढ़ा हो। सनातन धर्म का सबसे महान ग्रन्थ वेद भगवान् कौ नेति नेति कहते हैं। ऋषि-मुनि महात्मा कहते हैं – अनामी, अगोचर, अलख, अक्षय। जब अबतक देखने में किसी के आया नहीं तो फिर ध्यान किस रूप का किया जाये? इसलिये ध्यान से मुराद चित्त को स्थिर करने से है। जैसे शाम को संध्या समय एक तारा टिमटिमाता सा दिखाई दिया। उसको तीव्र दृष्टिवाला देखकर कहता है कि तारा निकल आया। दूसरा, जिसकी निगाह कुछ मंद है, वह कहता है, कहाँ है हमको तो दीखता नहीं ? उसको इशारे से बतलाया जाता है कि वह देखो, चमक रहा है। जब वह चित्त को स्थिर करके निगाह को खूब जमाता है तब वह सितारा उसको दिखलाई देता है। इसी प्रकार गुरु इशारा करके या सैन से बतलाते हैं कि वह है । और शिष्य अपना मन, चित्त, बुद्धि स्थिर करके ध्यानस्थ होता है तब उसको आत्मा का अनुभव होता है।
संचित कर्म और क्रियमाण कर्म के लिए ईश्वर या परमात्मा की अभी तक कोई आज्ञा नहीं हुई। लेकिम प्रारब्ध कर्म तो ऐसा है जैसे हाकिम के हुक्म से कोई बन्धन में डाल दिया जाये। अब हाकिम के हुक्म की तामील तो जरूर होनी चाहिये, वरना उसकी नीयत में हर्ज निश्चित होता है। इसलिए उसके हुक्म की तामील पूरी होने के लिए प्रारब्ध का वेग जारी रहता है।
कर्म करने की कुशलता, समता, कर्म बन्धन से छूटना, अविद्या आदि क्लेशों को काटना, चित्तवृत्ति को रोकना, चित्त को एकाग्र करके जीव को नित्य सत्य में स्थिर करना, जीव आत्मा और परमात्मा का मेल आदियोग कहलाते हैं।
सबसे बड़ा तप
सबसे बड़ा तप है सत्य बोलना, सबसे सरलता रखना, इन्द्रियों को सब ओर से खींचकर अपने वश में रखना।
जिस मनुष्य में यह चार गुण हों वह कष्ट आने पर भी कभी व्याकुल नहीं होता
– धीरता, दृढ़ता, बुद्धि और चातुर्य ।
प्राणस्पन्दन
प्राणस्पन्दन के रोक देने से, सत्संग से, वासनाओं के त्याग से और सच्चिदानन्द की भक्ति से मन धीरे-धीरे अपने वेग को छोड़ देता है। मगर वैराग्य हो जाने पर बिना आत्मबोध के आनन्द की प्राप्ति नहीं होती। आत्मबोध गुरु के उपदेश से ही होता है। अत: सबसे पहले गुरु की शरण में जाना चाहिये। आत्मा की प्रतीति शास्त्र, गुरु और अन्तःकरण इन तीन साधनों से होती है। शास्त्र पढ़कर या किसी से सुनकर ज्ञान होना अत्यन्त कठिन है। गुरु ने बताया कि यह गुड़ है, जब उसे खाया तो उसके मिठास का पता लगा।
शरीर
शरीर में गुरु बुद्धि और गुरु में शरीर बुद्धि करना महान भूल है। गुरुतत्त्व अनन्त ज्ञान का भंडार है। गुरु और हरि, हरि और सत्य में कोई भेद नहीं। जो गुरु को प्राप्त कर लेता है वह सबकुछ प्राप्त कर लेता है। ज्ञान का जिज्ञासु शिष्य गुरु होने के लिए ही गुरु की शरण में जाता है। गुरु वही है जो शिष्य को गुरु बना सके। गुरु को प्राप्त करते ही शिष्य गुरु हो जाता है। गुरु की आवश्यकता गुरु बनने के लिए ही होती है, शिष्य बनने के लिए नहीं। शिष्य तो तभी तक शिष्य है जबतक गुरु नहीं मिलता। ज्ञान की जिज्ञासा कर्मानुसार अपने आप उत्पन्न होती है। इस कारण शिष्य तो स्वयं ही गुरु बन जाता है।
सत्य
सत्य अनन्त प्रकार के स्वभाव की पूर्ति करते हुए भी स्वभाव से अतीत है। जैसे खेत में गन्ना और मिर्च बोने से खेत में मिर्च चरपराहट और गन्ने में मिठास की पूर्ति करता है। हालाँकि खेत में न तो चरपराहट है और न मिठास। इसी तरह से परमात्मा हर एक व्यक्ति के स्वभाव में स्थित होकर उसकी पूर्ति करता है। विषयी प्राणियों के स्वभाव के अनुसार प्रकट होकर उसकी भी पूर्ति करता है और सत्य भाव को धारण करके शनैः शनैः उसे ऊपर उठाकर अपने अनन्त स्वभाव में लीन करके अभेद कर लेता है।
मृत्यु
मृत्यु को जानने के लिए जीवन का ज्ञान आवश्यक है। जीवन इच्छाओं की पूर्ति के लिए होता है और उसके साथ-साथ शरीर भी बनता है। यदि सभी इच्छाओं की पूर्ति हो गई तो फिर जीवन की आवश्यकता ही नहीं रही। परन्तु सब इच्छाओं की पूर्ति एक जन्म में नहीं हो सकती। शरीर कर्म करने से धीरे-धीरे क्षय हो जाता है।
इसी देहान्त को आम भाषा में मृत्यु कहते हैं। परन्तु विचार से देखा जाय तो मृत्यु जीवन की एक ऐसी अवस्था है जैसे दिन के पश्चात् रात होती है। रात व्यतीत होने पर दिन होने का भान होता है। रातभर आराम करने से थकावट दूर होने पर दूसरे दिन के काम के लिए मनुष्य तैयार हो जाता है। इसी तरह मृत्यु के बाद जीवन निश्चय होता है और पहले जन्म की थकावट दूर होने पर दूसरे जन्म के लिए नवीनता आ जाती है। जिस प्रकार थकावट दूर करने को नींद आवश्यक है उसी प्रकार इच्छाओं के शेष रहनेवाले प्राणियों को मृत्यु आवश्यक है।
विवेक
विवेक व विचार से उपदेश में दृढ़ता आती है, जो अभ्यास के तरीके महात्माओं ने सिद्ध घोषित कर दिए हैं उन पर विचार करना समय गँवाना है। हाँ, कुछ समय अभ्यास करने पर कोई कठिनाई प्रतीत हो तो गुरु से पूछकर उसको ठीक कर लेना चाहिए; क्योंकि श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने कहा है कि श्रद्धा व युक्ति से हर काम सिद्ध होता है। अभ्यास किये बिना गुरु की बताई विधि में तर्क-वितर्क करना ठीक नहीं मालूम होता।