शत्रु-मित्र की परख कैसे करें?

शत्रु-मित्र की परख

यह मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि को ही अपना मित्र समझकर दिन रात इनके इशारों पर जीवन व्यतीत कर रहा है परन्तु यह उसकी बड़ी भूल है।

वास्तव में तो ये सब जीव के शत्रु ही हैं। मनुष्य के मित्र तो केवल सन्त सद्गुरु ही होते हैं जो कि उसे परख दृष्टि प्रदान कर इन शत्रुओं से बचने की युक्ति बताते हैं ।

अज्ञानी जीव अज्ञान वश मन व मन के अन्य साथियों को ही अपना हितैषी समझ बैठता है और परिणाम यह होता है कि मनुष्य का झुकाव विषय विकारों की तरफ होने से उसे चौरासी लाख योनियों के कष्ट उठाने पड़ते हैं।

जीव नहीं जानता कि मेरे अपने सच्चे मित्र कौन हैं। इस ‘शत्रु-मित्र की परख’ के विषय में ही एक दृष्टान्त नीचे दिया जाता है-ईरान देश में ‘दारा’ नाम का एक बादशाह हो चुका है।

इसकी मृत्यु यूनान के बादशाह ‘सिकन्दर’ के हाथों से हुई थी ।एक बार का वृत्तान्त है कि बादशाह दारा सैर करने के लिए जंगल की ओर घोड़े पर जा रहे थे। अकस्मात् दूर से एक व्यक्ति इन्हें अपनी तरफ आता हुआ दिखाई दिया।

इन को यह आशंका हुई कि कहीं यह मेरे शत्रु-पक्ष का ही न हो। उन दिनों दारा बादशाह के यूनान के बादशाह सिकन्दर के साथ सम्बन्ध किसी कारण से अच्छे न थे।अब समीप आते हुए व्यक्ति पर सन्देह होने के कारण बादशाह दारा ने झट धनुष पर बाण चढ़ा लिया । जब उस ने मनुष्य ने बादशाह की तरफ देखा कि यह तो मुझे ही मारने लगे हैं तब एकदम दोनों हाथ जोड़ व खड़े कर के कहने लगा-‘बादशाह सलामत! आपके नाम की दुहाई है।’ उसको ।

हाथ खड़े किये हुए देख कर बादशाह दारा तत्काल ही भॉप गये कि, ‘ओह! यह तो अपने ही पक्ष का कोई व्यक्ति मालूम होता है।’ ऐसा सोच कर उन्होंने तीर कमान से उतार लिया और वहीं पर रुक गये। इतने में वह व्यक्ति भी निकट आ पहुँचा।
 
उसने आकर बादशाह को सलाम किया। बादशाह ने पहचान लिया कि यह तो हमारे ही अस्तबल (अश्वशाला) में काम किया करता है। बादशाह ने उस मनुष्य से कहा कि अच्छा हुआ जो आपने मुझे हाथ के इशारे से सावधान कर दिया नही तो आज मैं अकारण ही तुम्हें मृत्यु की गोद में सुलाने वाला था। यदि अज्ञानवश आज यह नृशंस कार्य मुझ से हो जाता तो बाद में मुझे अपनी भूल पर बहुत पछताना पड़ता ।
 
तब अश्वरोही ने हाथ जोड़ कर विनय की कि ‘बादशाह सलामत! मैं तो आपका हितचिन्तक हूँ तथा आपके अस्तबल में ही घोड़ों का निरीक्षण करने के लिए नियुक्त किया गया हूँ। मेरे पास सैकड़ों घोड़े हैं, उन सब की मुझे पूरी-पूरी जानकारी है। प्रत्येक के आहार, उनकी चाल ढाल का, आयु व अन्य गुणों का भली प्रकार से मुझे ज्ञान है। कौनसा अश्व स्वामिभक्त है तथा कौन सा आलसी एवं उद्दण्ड है।
इतना परिचय तो मुझे पशु-वर्ग का भी हो गया है परन्तु आप तो मनुष्य वर्ग के बादशाह हो इसलिए आप में तो मुझसे भी बढ़कर परख-दृष्टि होनी चाहिये लेकिन इस घटना ने सिद्ध कर दिया है कि आप में दूरदर्शिता व परख का बहुत अभाव है |
आपको मित्र व शत्रु की पहचान नहीं।”अश्वपाल द्वारा यह कटाक्ष सुनकर उस समय तो दारा बादशाह चुप रह गए अर्थात् उसकी बातों को दिल में रख लिया परन्तु कुछ समय के बाद जब बादशाह के दोनों वज़ीर किसी कारणवश बादशाह से रुष्ट हो कर यूनान के सिकन्दर बादशाह से जा मिले तब उन्होंने दारा के सम्बन्ध में सिकन्दर के खूब कान भरे और उसे युद्ध में दारा बादशाह को मारने के लिए प्रेरित करने लगे।
जैसे कहा भी है, ‘घर का भेदी लंका ढाहे’ इसप्रकार उन वज़ीरों के द्वारा सिकन्दर बादशाह को ईरान के बादशाह के राज्य के भेद एवं उसके बाहुबल का बोध हो गया जिससे वह उत्साहित होकर ईरान देश पर उन दोनों वज़ीरों सहित विशाल सेना लेकर हमला करने को आ धमका।
 
परस्पर मन-मुटाव व वैमनस्य होने के कारण सिकन्दर व दोनों वज़ीर जब दारा पर आक्रमण करने लगे तो उस समय आठ-दस वर्ष पूर्व की घटना दारा बादशाह को स्मरण हो आई कि ‘उस साईस ने मुझे यह सत्य ही कहा था कि आपको मित्र व शत्रु की पहचान नहीं’ यह कहना उसका उचित ही था।
 
काश! मुझे शत्रु मित्र का ज्ञान होता कि मेरा शत्रु कौन है और मेरा हितैषी मित्र कौन सा है ? आज तक जिन दोनों वज़ीरों को मैं अपना अंगरक्षक शुभचिन्तक समझता था यदि उनके षड्यन्त्र अथवा कुटिल मैत्री को जान लेता तो आज मैं इसप्रकार उनके ही हाथों बिन आई मौत न मरता।’
फलतः दोनों वज़ीरों व सिकन्दर ने दारा को मौत की गोद में सुला दिया ।तात्पर्य यह कि इसी प्रकार ही सन्त सद्गुरु संसार में आकर जीवों को सत्-असत् व शत्रु-मित्र की परख कराते हैं।
 
क्योंकि वे ही जीव के वास्तव में सच्चे मित्र हैं परन्तु अज्ञानी जीव माया की कीच में फँसने के कारण उस तरफ ध्यान ही नहीं देते तथा उनके वचनों को स्वयं मन व माया के अधीन होने के कारण हृदय में स्थान नहीं दे पाते।
 
जब अन्तिम समय यह पाँचों चोर (कामादि) आकर उसकी आत्मा का हनन करते हैं तब उस समय ये आठ-आठ आँसू हुए जो सद्गुरु अफ़सोस करता है कि ‘कितना ही अच्छा होता की राहनुमाई व वचनानुसार जीवन व्यतीत किया होता तो आज इस प्रकार फिर दुःखों का शिकार न बनना पड़ता
। परन्तु उस समय सिवाय पछताने के कुछ भी हाथ नहीं लगता क्योंकि यह पाँचों शत्रु अपना कार्य कर जीव को चौरासी लाख योनियों के कूप में गिरा देते है। इसीलिए ही सन्त महापुरुषों को जीव की अज्ञानता पर दया आती है
तथा वे जीवों को परख दृष्टि प्रदान करने के लिए ही संसार में अवतरित होते हैं।
 
वे भाग्यशाली मनुष्य हैं। जो उनके वचनानुसार जीवन-यापन करते हैं।
वे इन काम- क्रोध-लोभ-मोह अहंकार आदि के प्रहारों से बचकर तथा उन पर समय के पूर्ण सन्त सद्गुरु द्वारा प्रदत्त नाम रूपी शस्त्र से आक्रमण कर विजय हासिल कर लेते हैं। ऐसे ही जीवों का जीवन संसार में धन्य है तथा वे भाग्यशाली जीव सुख-शान्ति प्राप्त कर अपने मनुष्य जन्म के उद्देश्य की पूर्ति कर लेते हैं।

Leave a Comment