विचारों का प्रभाव – एक सेठ एक और महात्मा जी की कथा

विचारों का प्रभाव कथा है-सहारनपुर में एक सेठ एक महात्मा जी के सत्संग में जाता था। जब भी महात्मा जी उसके भी लिए उसे कोई धन की सेवा के लिए कहते तो वह टाल देता था। लाखों रुपये पास होते हुए भी उसने कभी एक पाई भी सत्कार्य के लिए खर्च नहीं की। महात्मा जी के गुरु हरिद्वार में रहते थे।

महात्मा जी के बार बार कहने पर भी वह कभी उनके दर्शन करने हरिद्वार नहीं गया। उसके रिश्तेदारों ने भी कहा कि गंगा स्नान कर आओ और श्री गुरु महाराज जी के दर्शन भी कर आओ लेकिन उसने सबकी बात अनसुनी कर दी।

गुरुवाणी में वर्णन आया है

मन की मन ही माहि रही ॥ ना हरि भजे न तीरथ सेवे चोटी कालि गही ॥

अर्थात् मन की बात मन में ही रह गई। न प्रभु का सुमिरण किया, न किसी धार्मिक तीर्थ स्थान पर जाकर कोई सेवा की, परन्तु मृत्यु ने उसे आन दबोचा।

यही हाल उस सेठ का हुआ। अचानक एक दिन काल ने आकर उसको पकड़ लिया और वह मृत्यु के मुख में समा गया। उसके रिश्तेदारों और बेटों ने सलाह की कि जीते जी तो यह हरिद्वार नहीं गया, अभी इसके मृतक शरीर को ही गंगा में प्रवाह कर दिया जाए।

ऐसा सोच हरिद्वार की ओर रवाना हुए। जब लकसर पहुँचे तो कोथोडा विश्राम करने के लिए वहाँ रुके व सेठ के शरीर को एक खाली कोठरी में रखकर स्वयं सत्संग और गंगा स्नान की महिमा गाने लगे।

एक कोढ़ी और सेठ का शरीर – सेठ की बजाए एक कोढ़ी का हरिद्वार पहुंचना

देवयोग से उस कोठरी में एक कोढ़ी सोया हुआ था, उसने उनकी बातें सुनी। उसके मन में विचार आया कि यहाँ मरने की अपेक्षा क्यों न मैं हरिद्वार जाकर मरूँ। पर वह यह सोचकर उदास हो गया कि उसे इस अवस्था में हरिद्वार कौन ले जाएगा? उसने एक युक्ति सोची, धीरे धीरे सेठ के शरीर से कपड़ा उतारकर उसके शव को वहीं ज़मीन पर रखकर वह स्वयं खाट पर लेट गया।

उधर उन्होंने थकान उतारकर अंधेरे में रखी हुई खाट उठाई और हरिद्वार की ओर चल दिए। जैसे ही खाट नीचे रखी वह कोढ़ी ‘जय गंगा मैया की’ कहता हुआ उठ खड़ा हुआ। वे सभी हैरान हो उसके मुँह की तरफ देखकर पूछने लगे कि : तुम कौन हो? और सेठ का शरीर किधर गया?

कोढ़ी ने जवाब दिया कि मैं बहुत दुःखी और बीमार हूँ। मेरे दिल में यह तीव्र उत्कण्ठा थी कि मैं हरिद्वार जाऊँ पर मुझ असहाय को यहाँ कौन लेकर आता ? इसलिए सेठ के शरीर को वहीं उतार में खाट पर लेट गया। मेरी इस गुस्ताखी के लिए आप मझे मारें या छोड़ दें, यह आपकीइच्छा है।

उन्होंने सोचा कि इसे मारने से हमें क्या हाथ लगेगा? उन्होंने दो घोडे किराये पर लेकर दो नौकरों को दिए और कहा कि आगे वाले घोड़े पर तुम बैठना और पीछे वाले घोड़े पर सेठ के शरीर को रखकर उस घोड़े को रस्सी से अपने वाले घोड़े के साथ बांध कर ले आना। दोनों नौकर रवाना हो गए।

वहाँ पहुँचकर उन्होंने एक घोड़े पर सेठ के शरीर को रखा और रस्सी बांधकर स्वयं दूसरे घोड़े पर जा चढ़े। कुदरत का संयोग, जिस घोड़े पर सेठ का शव रखा था वह बिदकता था। थोड़ा आगे आने पर वह रस्सा छुड़वाकर भाग खड़ा हुआ और भागते भागते सहारनपुर जा पहुंचा।

शहर के लोगों ने कपड़ा हटाकर देखा तो पहचाना कि यह तो सेठ का शव ही है।

सेठ के रिश्तेदारों ने शव का वहीं अग्नि संस्कार कर दिया जो हरिद्वार गए थे, उन्हें वापस बुला लिया। यह जानकर कि भावी ही ऐसी होगी, वे उसकी अस्थियों को हरिद्वार में प्रवाह करने की सोचने लगे।

उसकी अस्थियां एकत्र करके एक डिब्बे में डालकर उसमें एक कीमती कपड़ा, एक अंगूठी और चांदी का रुपया रखकर खादी के कपड़े से सिल कर एक बूढ़े ब्राह्मण को सौंप दिया। पूजा वगैरह का सब खर्चा देकर उसे कहा कि विधिवत इन अस्थियों को गंगा में प्रवाह कर देना।

जैसे ही डिब्बा लेकर ब्राह्मण शहर से बाहर जगल में आया तो उसे अचानक ख्याल आया कि मुझे दक्षिणा मिली है, क्यों न उसे घर पर रख आऊँ। यह सोचकर उस डिब्बे को लकड़ियों के एक ढेर के नीचे रखकर घर चला गया। तभी एक चला गया। तभी एक सफाई कर्मचारी लकड़ियां में आया और उसने उसी ढेर पर जैसे ही मारा, डिब्बा छन छन करके ज़मीन पर आ गिरा। ने डिब्बा खोला और उसमें से कपड़ा, अंगूठी व चांदी का रुपया निकाल लिया।

उन अस्थियों को वहीं गिराकर टला भी घर ले गया। ब्राह्मण घर से वापस आया तो वहाँ डिब्बा न पाकर सोच में पड़ गया। उसने विचार किया कि यदि वह जाकर सच्चाई प्रकट करता है तो अवश्य ही उसे उनके क्रोध का सामना करना पड़ेगा। इसलिए उसने जाकर झूठ ही कह दिया कि वह अस्थियां प्रवाह कर आया है।

अभी दो ही दिन बीते थे कि सफाई कर्मचारी उस कपड़े की कमीज़ सिलवाकर उसी सेठ के घर पहनकर सफाई करने के लिए चला गया। सेठ की बहू ने देखते ही कहा कि यह तो हमारा ही कपड़ा है। कर्मचारी ने सब सच बता दिया कि कैसे यह कपड़ा व अन्य चीजें उसे जंगल से मिलीं। उससे सब वृत्तान्त सुनकर उन्होंने उस बूढ़े ब्राह्मण का बुलाया और उसे झूठ बोलने के लिए डांटने फटकारने लगे।

तब ब्राह्मण ने कहा कि आप सोचो जो दस जवानो द्वारा हरिद्वार न पहँच पाया वह एक मेरे बूढ़े ब्राह्मण द्वारा कैसे पहुँच सकता था ?

सच तो यह है कि प्रत्येक प्राणी के विचार न उसके जीवित रहने तक काम करते हैं अपितु शरीर क बाद भी वे अपना प्रभाव दिखाते है।

इसलिए किसी का कोई दोष नहीं। यह सब अपने विचारों की दृढ़ता का परिणाम है। शरीर छोड़ने के बाद ख्यालों के अनुसार ही जीव की गति होती है।

भगत त्रिलोचन जी ने कहा है:

अंति कालि जो लछमी सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरे।
सरप जोनि वलि वलि अउतरै ॥

भाव यह है कि जो अंत समय धन में सुरति फँसा लेता है उसे बार बार सर्प योनि में जन्म लेना पड़ता है। उस ब्राह्मण ने कहा कि जहाँ उस सेठ का धन दबा पड़ा है उसकी आत्मा ने सर्प बनकर वहीं वास किया होगा।

यह सुन सेठ के बेटों ने वहाँ जाकर देखा तो सचमुच ही एक फनीअर सर्प वहाँ बैठा फुफकार रहा था। उसे मारकर बेटों ने उस धन को सफल करने की सोची। लेकिन माया के विषैले प्रभाव को अमृतमयी बनाना सरल कार्य नहीं। यह सामर्थ्य तो सत्पुरुषों के पास होती है जो माया को भक्ति रूप बनाकर दुःखदायी से सुखदायी बना देते हैं।

सेठ के बेटों ने अपने मन के ख्यालों से उस धनराशि से धर्मशाला बनवाई।

जैसे ही सेठ का कमाया हआ धन धर्मशाला में लगा तो उसकी आत्मा ने प्रेत योनि में जाकर उसमें वास कर लिया।

पुनः वर्णन करते हैं

अंति कालि जो मंदर सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरे। प्रेत जोनि वलि वलि अउतरै ॥

अंत समय जिसकी सुरति अपने घर की ओर चली जो उसे प्रेत योनि में जन्म लेना पड़ता है। जो भी कर उस धर्मशाला में आकर रहता उसे वह प्रेत बहुत तंग करता।आखिर पूरे शहर में यह बात फैल गई कि इस धर्मशाला में प्रेत रहता है। प्रेत के डर से कोई भी आदमी उस धर्मशाला में नहीं टिकता था।

 जो संतों का कहना नहीं मानते हैं, वे अपने कर्मों का हिसाब स्वयं देते हैं।

  • ऊपर दिये हुए उदाहरण से समझ सकते हैं कि विचार जीव को कैसे भटकाते हैं? जीते जीजो अपने अंदर जैसा ख्याल सुदृढ़ कर लेता है उसका परिणाम उसे शरीर रहने तक ही नहीं अपितु मृत्यु उपरांत भी भुगतना पड़ता है।

यह सब अज्ञानतावश बुद्धि की मैल के कारण है। इसलिए इन्सान को विचार करना चाहिए कि

अज्ञानता का यह अंधकार कैसे दूर हो?

इन्सान को संसार में किस प्रकार रहना चाहिए?

जैसे हम कपडे पहनते हैं, स्वयं उस पर मिट्टी न भी डालें, तो भी अगले दिन वे मैले हो ही जाते हैं।

जैसे घर में हम मिट्टी नहीं डालते तो भी झाडू लगाने से मिट्टी  निकल ही आती है। दांतों पर हर रोज पीली तह चढ़ जाती है। इसी प्रकार बुद्धि पर मायावी विचारो का कुसंग प्रभाव चढ़ ही जाता है। हमें भले ही यह दृष्टिगोचर न हो किन्तु  यह धीरे धीरे अपना प्रभाव डाल ही देता है। जैसे नाख़ून और बाल बढ़ते रहते हैं, लेकिन पता बाद में चलता

वैसे ही बुद्धि जो अति सूक्ष्म है उस पर धीरे धीरे मैल चढ़ती जाती है। पहले तो उसका कुछ पता नहीं चलता किन्तु उसका परिणाम बाद में दृष्टिगोचर होता है।

इन्सान का स्वभाव पशु समान हो जाता है। क्रोध और अहंकार के कारण उसे कितनी ही मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। मोह और काम के कारण उसे कितनी ही बीमारियां घेर लेती हैं। लोभ आदि विकारों के कारण मित्र भी शत्रु बन जाते हैं। विचार इतने दूषित हो जाते हैं कि कभी कभी वह अपनी अनमोल जिंदगी को स्वयं ही समाप्त कर देना चाहता है।

अब प्रश्न यह उठता है कि ऐसे दुःख से स्वयं को कैसे बचाएं और अपने मलिन विचारों को दग्ध कर किस प्रकार अन्तःकरण को उज्ज्वल एवं शुद्ध बनायें?

सदगुरु के नाम की रोशनी में सफर करने से जीव के मन की सब कलुषिता धुल जाती है। जीवन प्रकाशमय बन जाता है। जब जीवन में ज्ञान का प्रकाश हो जाता है तो जीव के विचार स्वतः ही सही हो जाते हैं। वह स्वयं भी सुखी हो जाता है और जो उसके संग में आते हैं, वे भी दुःखों से छुटकारा पाकर सुखी हो जाते हैं।

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माँ की महिमा

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