वाणी की मधुरता

वाणी की मधुरता

हमें अपनी वाणी पर पूर्ण नियन्त्रण रखना चाहिए। बिना सोचे विचारे कोई भी शब्द अपनी जिवा पर नहीं लाना चाहिए। शस्त्र द्वारा किया गया घाव तो समय पाकर भर जाता है लेकिन अनुचित शब्द बोलकर किया गया घाव जीव को मरते दम तक दुःख देता रहता है। इसलिए पहले तोलो फिर बोलो। परमसन्त श्री कबीर साहिब जी कथन करते हैं

ऐसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ । अपना तन सीतल करै, औरन को सुख होइ ॥

फ़रमाते हैं कि इन्सान को ऐसी वाणी बोलनी चाहिए जो अहंकार रहित हो । उसमें इतनी मिठास हो कि स्वयं को भी शीतलता मिले और सुनने वाले का हृदय भी शान्त हो जाए। वाणी से ही इन्सान की योग्यता की परख होती है। जो जितना विनम्र होगा वह उतना ही गुणवान होगा।

श्रीमद्भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण जी अर्जुन के प्रति कथन करते हुए फ़रमाते हैं

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।

अर्थात् दूसरों को क्षुब्ध न करने वाली, सच्ची, हितकर व प्रिय वाणी ही बोलनी चाहिए। प्रिय लगने वाली

वाणी बोलने वाला अपने ओहदे की पहचान स्वयं करवा देता है।

कथा है-एक बार कोई राजा शिकार करने निकला। किसी हिरण के पीछे घोड़ा दौड़ाते दौड़ाते वह अपने साथियों से अलग हो गया। जंगल में एक कुटिया थी जिसमें एक सूरदास ऋषि रहते थे। कोतवाल ने उधर से गुज़रते हुए उस ऋषि से पूछा-ए अंधे! मुझे यह बताओ कि यहाँ से थोड़ी देर पहले कोई जानवर निकला है ?

तो ऋषि ने उत्तर दिया कि ए कोतवाल! यहाँ से थोड़ी देर पहले एक हिरण निकला है। कुछ समय पश्चात् वज़ीर ने वहाँ से निकलते हुए उसी ऋषि से पूछा-ए सूरदास ! यहाँ से कोई आदमी गुज़रा है क्या ? ऋषि ने जवाब दिया कि ए वज़ीर! यहाँ से कोतवाल साहिब गए हैं।

वज़ीर के पीछे पीछे राजा भी आ गया। उसने ऋषि से पूछा-ए सज्जन! क्या यहाँ से कुछ व्यक्ति गुज़रे है ? से ऋषि ने उत्तर दिया-ए राजन्! यहाँ से वज़ीर और कोतवाल गए हैं। जब राजा, वज़ीर और कोतवाल आपस में मिले तो परस्पर बात करने लगे कि कैसे उनकी भेंट एक ऋषि से हुई जिनकी आँखें नहीं थी। फिर भी उन्होंने सबको उनके नाम से सम्बोधित करके कैसे पुकारा ?

यह जानने के लिए वे पुनः उस ऋषि के पास गए।

राजा ने ऋषि से पछा कि आपने आँखें न रहने पर भी हम सबको हमारे नाम से कैसे सम्बोधित किया? ऋषि ने उत्तर दिया कि आदमी की पहचान उसकी वाणी व बातचीत करने के ढंग से हो जाती है।

आपका बात करने का ढंग नम्रता वाला था इसलिए मैंने आपको राजा कहा। बज़ीर का बात करने का ढंग थोड़ा कम नम्रता वाला था इसलिए मैंने उन्हें वज़ीर कहा।

कोतवाल का बात करने का ढंग उससे भी कुछ कम शिष्टता का था इसलिए मैंने उन्हें पहचान कर कोतवाल से सम्बोधित किया।

राजा ने उन्हें अनुभवी पुरुष जान प्रणाम किया और पूछा कि ऐसी अंदर की सूझबूझ कैसे प्राप्त होगी?

ऋषि ने जवाब दिया कि नाम के अभ्यास से सुरति स्थूल से सूक्ष्म हो जाती है, मलिन आवरण हट जाते हैं।

मन में निर्मलता एवं पवित्रता आ जाती है। ज्ञान का प्रकाश हो जाने से इन्सान में अंतर्यामिता आ जाती है। यह सुनकर राजा ने ऋषि से नाम दान देने की याचना की।

ऋषि ने राजा की अपार श्रद्धा व प्रेम को देखते हुए उसे नाम की बख्शिश की जिसका जाप करने से राजा के विचारों में अप्रत्याशित परिवर्तन हो गया। वाणी की मधुरता ने राजा को भक्ति पथ की ओर अग्रसर कर उसके जीवन में चार चांद लगा दिए।

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