मन पर नियन्त्रण कैसे करें ? शिक्षाप्रद कथा

मन पर नियन्त्रण – एक महान् राजा राज्य का त्याग कर संन्यासी बन गया। एकबार जबकि वह एकाग्रचित्त नगर के पास से गुज़र रहा था, भाँति-भाँति की मिठाइयाँ हलवाई की दुकान पर देखकर उसका मन ललचा गया। उसके मन ने मिठाइयाँ खाने का हठ किया। परन्तु उसके पास पैसे नहीं थे। बिना पैसे के हलवाई उसे देगा नहीं, उसके मन ने कहा-

ऐ साधु! जंगल से थोड़ी-सी लकड़ियाँ इकट्ठी कर उन्हें बेचकर कुछ धन कमाओ और उससे मिठाइयाँ खरीद कर खाओ। अपने मन के कथनानुसार साधु ने वैसा ही किया और मिठाइयाँ खरीदीं।

उसका मन अत्यन्त प्रसन्न था । पुनः उसने मिठाइयाँ खाने के लिए दबाव डाला। आन्तरिक आवाज़ ने कहा इसे तुम लोगों में नहीं खा सकते। कोई क्या कहेगा कि केसरी कपड़े पहने साधु मिठाई खा रहा है और वे हँसी उड़ायेंगे। यह तुम्हारे लिए कितनी अपमानजनक बात

है। इसलिए नगर के बाहर एकान्त में किसी वृक्ष के नीचे उचित स्थान देखकर खाना ।

अतः उसके मन ने इन्हें खाने का दृढ़ निश्चय कर लिया। साधु ने ऐसे ही स्थान का प्रबन्ध कर लिया। वह अपने मन को प्रसन्न करते हुए कहता है, प्रथम मैं कुछ दूरी पर बह रही नदी में स्नान कर लूँ तब तेरी भूख तृप्त करूँगा। अब तो यहाँ कोई देखनेवाला नहीं है। उसी समय साधु और उसके मन में संघर्ष उत्पन्न हुआ और साधु उसी समस्या को सुलझाने में लग गया।

साधु ने नदी में स्नान किया। निस्सन्देह उसे भूख लगी हुई थी परन्तु उस समय तक वह अपने मन पर हावी हो चुका था।

उसने मन को कोसते हुए कहा- ऐ लालची धूर्त मन ! तूने मुझे लकड़ियाँ इकट्ठी करवाने का अत्यधिक कष्ट दिया। क्या घर में किसी वस्तु की मुझे कमी थी ? अब मैं तुम्हें अच्छी तरह से पाठ पढ़ाऊँगा।

कुछ मिठाइयाँ दायें हाथ में तथा कुछ बायें हाथ में लेकर उसने मन को प्रसन्न करते हुए कहा कि तुमने मुझे पथ से भटका दिया।

एक बार पुनः उसके मन ने कहा कि अब मिठाइयाँ खा लो, परन्तु अब वह मन को जीत चुका था, अतः उसने मन को धिक्कारते हुए मिठाई के एक-एक टुकड़े को नदी में फेंक दिया। इसप्रकार मिठाई का पैकेट पूरे का पूरा नदी में बह गया और मन का तिरस्कार किया। इसप्रकार साधु ने यह खेल जीत लिया।

मन का स्वभाव ही ऐसा है । पूर्ण सन्त-सद्गुरु कृपा के बिना इस पर संयम करना कठिन है। यह की मनुष्य को सत्यता के मार्ग से भटकाता है। यहाँ तक कि राजा भर्तृहरि जैसे महान् व्यक्ति, जिसने राजपाट का त्याग किया, मन की दुष्ट चाल से अपने आपको न बचा पाया ।

कहा जाता है कि एक बार त्याग के पश्चात् भर्तृहरि ने पान के पत्ते की थूक कीमती हीरा समझ कर हाथ में उठा ली। जब उसे वास्तविकता का ज्ञान हुआ कि यह लाल नहीं, वह लज्जित हुआ और उसने यह दोहा पढ़ा।

दोहा

लाल जड़ित मण्डप तजे, तजी संहसर नार । अजहूँ कामना न तजी, रे मन तोहे धिक्कार ॥

ऐ मन! तूने हीरे रत्नों से जड़ित सुन्दर महल, हज़ारों लुभावनी रानियाँ, राज्य और सभी अधिकार छोड़कर परमात्मा की भक्ति के लिए संन्यास भी ग्रहण कर लिया है। परन्तु कितनी दयनीय अवस्था है तेरी ! इन सबका त्याग करने के पश्चात् इच्छाओं का त्याग नहीं किया। ऐ पापी मन ! तुम्हें लज्जा आनी चाहिये ।

इसलिए सन्त चेतावनी देते हैं कि मन जीव का शत्रु है। मन के कहे अनुसार चलने की अपेक्षा होशियार रहो। सन्त-सद्गुरु के मार्गदर्शन में चलो। जिसके सिर पर पूर्ण सद्गुरु का हाथ है, वह सुरक्षित है तथा आनन्दमग्न जीवन व्यतीत कर सकता है। सद्गुरु मन जीतने का मार्ग बतलायेंगे, उस पर मनन करना होगा। यही जीवन का परम लक्ष्य है।

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