मधुशाला – हरिवंश राय बच्चन|Madhushala Harivansh Rai Bachchan

मधुशाला – हरिवंश राय बच्चन


मृदु भावों के अंगूरों की 
आज बना लाया हाला,
 प्रियतम, अपने ही हाथों से
 आज पिलाऊँगा प्याला; 
पहले भोग लगा लूँ तेरा, 
फिर प्रसाद जग पाएगा; 
सबसे पहले पहले तेरा स्वागत
 करती मेरी  मधुशाला।

प्रियतम, तू मेरी हाला है, 
मैं तेरा प्यासा प्याला,
 अपने को मुझमें भरकर तू
 बनता है पीनेवाला,

मैं तुझको छक छलका करता,
 मस्त मुझे पी तू होता;. 
एक दूसरे को  हम दोनों ,
आज परस्पर मधुशाला ।
मदिरालय जाने को घर से
 चलता है पीनेवाला,

'किस पथ से जाऊं ?" असमंजस 
में है वह  भोलाभाला;
 अलग-अलग पथ बतलाते सब
 पर मैं यह बतलाता हूँ-- 
'राह पकड़ तू एक चला चल,
पा जाएगा मधुशाला ।' 

हाथों में आने से पहले नाज़ दिखाएगा प्याला, अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला
बहुतेरे इन्कार करेगा, साकी आने से पहले;पथिक, न घबरा जाना, पहले मान करेगी मधुशाला।  

लाल सुरा की धार लपट-सी कह न इसे देना ज्वाला, फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला, दर्द नशा है इस मदिरा का,
विगतस्मृतियाँ साक़ी हैं; पीड़ा में आनन्द जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।

एक बरस में एक बार ही जगती होली की ज्वाला, एक बार ही लगती बाजी, जलती दीपों की माला; दुनियावालो, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,

दिन को होली, रात दिवाली रोज मनाती मधुशाला !

दो दिन ही मधु मुझे पिलाकर 
ऊब उठी साक़ीबाला, भरकर अब खिसका देती है। वह मेरे आगे प्याला, नाज, अदा, अंदाज़ों से अब,
हाय, पिलाना दूर हुआ; अब तो कर देती है केवल फ़र्ज़ - अदाई मधुशाला ।

छोटे-से जीवन में कितना प्यार करूं, पी लूं हाला, आने के ही साथ कहलाया जगत में 'जा ने वा ला',
स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी
बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन - मधुशाला ।

कर ले, कर ले कंजूसी तू मुझको देने में हाला, दे ले, दे ले तू मुझको बस यह टूटा-फूटा प्याला,मैं सब्र इसी पर करता, तू पीछे पछताएगी;
जब न रहूंगा मैं तब मेरी याद करेगी मधुशाला ।

ध्यान मान का अपमानों का छोड़ दिया जब पी हाला,गौरव भूला आया कर में जब से मिट्टी का प्याला;

साकी की अंदाज़ भरी झिड़की में क्या अपमान धरा; दुनिया-भर की ठोकर खाकर पाई मैंने मधुशाला।

गिरती जाती है दिन-प्रतिदिन प्रणयिनि, प्राणों की हाला, भग्न हुआ जाता दिन-प्रतिदिन, सुभगे, मेरा तन-प्याला,

रूठ रहा है मुझसे, रूपसि,दिन-दिन यौवन का साक्री,सूख रही है दिन-दिन, सुंदरि, मेरी जीवन मधुशाला ।

यम आएगा साकी बनकर साथ लिए काली हाला, पी न होश में फिर आएगा ,सुरा विसुध यह मतवाला;

यह अंतिम बेहोशी, अंतिम साक़ी, अंतिम प्याला है; पथिक, प्यार से पीना इसको फिर न मिलेगी मधुशाला।

ढलक रही हो तन के घट से संगिनि, जब जीवन-हाला, पात्र गरल का ले जब अंतिम साक़ी हो आनेवाला, हाथ परस भूले प्याले का, स्वाद सुरा जिल्ह्वा भूले,कानों में तुम कहती रहना
मधुकण, प्याला, मधुशाला।

मेरे अधरों पर हो अंतिम वस्तु न तुलसीदल, प्याला, मेरी जिह्वा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल, हाला
मेरे शव के पीछे चलने- वालो, याद इसे रखना -- 'राम नाम है सत्य' न कहना, कहना 'सच्ची मधुशाला ।'

मेरे शव पर वह रोए, हो जिसके आंसू में हाला आह भरे वह, जो हो सुरभित मदिरा पीकर मतवाला,
दें मुझको वे कंधा, जिनके पद मद डगमग होते हों, और जलूं उस ठौर, जहाँ पर कभी रही हो मधुशाला।

और चिता पर जाय उंडेला पात्र न घृत का, पर प्याला, घंट बँधे अंगूरलता में, मध्य न जल हो, पर हाला

प्राणप्रिये, यदि श्राद्ध करो तुम मेरा, तो ऐसे करना- पीनेवालों को खुलवा देना बुलवाकर मधुशाला।
देख रहा हूँ अपने आगे कब से माणिक-सी हाला, देख रहा हूँ अपने आगे कब से कंचन का प्याला, 'बस अब पाया !' कह कह
कब से दौड़ रहा इसके पीछे, किंतु रही है दूर क्षितिज-सी मुझसे मेरी मधुशाला ।

कभी निराशा का तम घिरता, छिप जाता मधु का प्याला, छिप जाती मदिरा की आभा, छिप जाती साक़ीबाला,

कभी उजाला आशा करके प्याला फिर चमका जाती, आँखमिचौनी खेल रही है मेरी मधुशाला ।

मिले न पर ललचा ललचा क्यों आकुल करती है हाला, मिले न पर तरसा-तरसाकर क्यों तड़पाता है प्याला, हाय, नियति की विषम लेखनी मस्तक पर यह खोद गई--ः'दूर रहेगी मधु की धारा, पास रहेगी मधुशाला !'

क़िस्मत में था खाली खप्पर, खोज रहा था मैं प्याला; ढूंढ रहा था मैं मृगनयनी, किस्मत में थी मृगछाला;

किसने अपना भाग्य समझते में मुझसा धोखा खाया। किस्मत में था अवघट मरघट, ढूंढ रहा था मधुशाला !

उस प्याले से प्यार मुझे जो दूर हथेली से प्याला,
उस हाला से चाव मुझे जो दूर अधर से है हाला; प्यार नहीं पा जाने में हैं, पाने के अरमानों में ! पा जाता तब, हाय, न इतनी प्यारी लगती मधुशाला।

जिसने मुझको प्यासा रखखा, बनी रहे वह भी हाला, जिसने जीवन-भर दौड़ाया, बना रहे वह भी प्याला;

मतबालों की जिह्वा से हैं कभी निकलते शाप नहीं; दुखी बनाया जिसने मुझको सुखी रहे वह मधुशाला ।

क्या मुझको आवश्यकता है। साकी से मांगू हाला, क्या मुझको आवश्यकता है। साक़ी से चाहूँ प्याला, पीकर मदिरा मस्त हुआ तो प्यार किया क्या मदिरा से !मैं तो पागल हो उठता हूँ सुन लेता यदि मधुशाला ।

कितनी जल्दी रंग बदलती है अपना चंचल हाला, कितनी जल्दी घिसने लगता हाथों में आकर प्याला,

कितनी जल्दी साक़ी का आकर्षण घटने लगता है; प्रात नहीं थी वैसी जैसी रात लगी थी मधुशाला ।

छोड़ा मैंने पंथ-मतों को तब कहलाया मतवाला, चली सुरा मेरा  पग धोने तोड़ा मैंने जब प्याला, अब मानी मधुशाला पीछे-पीछे फिरती है;क्या कारण ? अब छोड़ दिया है मैंने जाना मधुशाला ।

कितनी आई और गई पी इस मदिरालय में हाला, कितनी टूट चुकी है अब तक प्यालों की माला,

कितने साक़ी अपना -अपना काम ख़तम कर दूर गए, कितने पीनेवाले आए,  किंतु वही है मधुशाला 

दर-दर घूम रहा था तब मैं चिल्लाता-हाला ! हाला ! मुझे न मिलता था मदिरालय,मुझे न मिलता था प्याला;
मिलन हुआ, पर नहीं मिलन-सुख लिखा हुआ था किस्मत में, मैं अब जमकर बैठ गया हूँ, घूम रही है मधुशाला।

मैं मदिरालय के अन्दर हूँ, मेरे हाथों में प्याला, प्याले में मदिरालय बिंबित- करनेवाली है हाला
 इस उधेड़-बुन में ही मेरा सारा जीवन बीत गया-
 मैं मधुशाला के अन्दर मेरे अन्दर या मधुशाला ।

वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला, जिसमें मैं बिंबित प्रतिबिंबित प्रतिपल, वह मेरा प्याला;

मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है, भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।

कहाँ गया वह स्वर्गिक साक़ी, कहाँ गई सुरभित हाला, कहाँ गया स्वपि्नल मदिरालय, कहाँ गया स्वर्णिम प्याला ! पीनेवालों ने मदिरा का
मूल्य, हाय, कब पहचाना ? फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला ।

अपने युग में सब को अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला, अपने युग में सब को अद्भुत ज्ञात हुआ अपना प्याला, फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया-  अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला ।

कितने मर्म जता जाती है बार-बार आकर हाला, कितने भेद बता जाता है बार - बार आकर प्याला, कितने अर्थों को संकेतों से बतला जाता साक़ी,
फिर भी पीनेवालों को है एक पहेली मधुशाला।

जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला, जितनी मन की मादकता हो उतनी मादक है हाला,

जितनी उर की भावुकता हो उतना सुंदर साक़ी है, जितना ही जो रसिक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला ।

मेरी हाला पाई मेरे पाया में सब ने अपनी-अपनी हाला, प्याले में सब ने अपना-अपना प्याला,
मेरे साकी में सब ने अपना प्यारा साक़ी देखा; जिसकी जैसी रुचि थी उसने वैसी देखी मधुशाला।

कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, बना पाया हाला, कितने अरमानों को करके खाक बना पाया प्याला ! पी पीनेवाले चल देगे, हाय, न कोई जानेगा, कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला