निष्काम सेवा का महत्व क्या है ?

निष्काम सेवा का महत्व – जीवन में ऐसा कोई भी क्षण नहीं होता कि जब सेवा नहीं की जा सकती। अपने हर कर्म तथा विचार को निष्काम भाव से मालिक के अर्पण करना ही सेवा है। अपना कर्त्तव्य अवश्य निभाओ परन्तु फल मालिक को अर्पण कर दो।इस प्रकार हर कर्म सेवा का ही रूप बन जाता है।

परमात्मा की ओर ले जाने का सबसे सहज यही साधन है। निष्काम सेवा से मालिक प्रसन्नता उतरती है व जीव उनके अलौकिक रूप का दर्शन । कर निहाल हो जाता है।

निम्नलिखित कथा से इस तथ्य का स्पष्टीकरण होता है

प्राचीनकाल में राजा चोला तामिलनाडू प्रदेश पर राज्य कर रहे थे। उस समय की राजधानी तान्जुवर में उन्होंने एक भव्य मन्दिर बनाने की योजना बनाई। अनेकों मज़दूर में इस काम के लिए नियुक्त किए गये। मज़दूर इस मन्दिर के , निर्माण कार्य में अथक परिश्रम से संलग्न थे।

चूँकि निर्माण कार्य एक मन्दिर का था जहाँ हज़ारों की संख्या में लोग पूजा-आराधना हेतु आयेंगे, श्रमिक अधिक श्रद्धा सहित कार्य कर रहे थे।

इसी शहर में एक अज़ाहगी नाम की वृद्धा रहती थी। वह बहत धार्मिक विचारों वाली स्त्री थी। उसके दिल में भी है सा करने की लालसा उत्पन्न होने लगी। किन्तु शरीर वृद्ध था।

निर्बल थी, धन भी न था जो वह दान दे सकती।

कि वह सेवा करने में असमर्थ है, वह अधिक हा एक दिन उसका पोता दूर से दौड़ता हुआ आया और कहने लगा, “दादी माँ! मुझे बहुत प्यास लगी है, थोड़ी सी लस्सी (छाछ) पिला दो।”उसी समय वद्धा अज़ाहगी के दिल में विचार कौंधा  कि क्यों न धूप में मन्दिर कार्य में संलग्न श्रमिकों को लस्सी पिला दिया करे।

श्रमिकों को लस्सी बाँटनी

उन्हें भी तो धूप में अधिक लगती होगी। वह मन ही मन प्रार्थना करने लगी- “हे प्रमाण | मैं दीन हूँ, अति निर्बल हूँ, मेरी यही सेवा स्वीकार करना। मैं तो अति तुच्छ हूँ, हे प्रभु! मुझपर कृपा करो।”इस प्रकार उसने प्रतिदिन का नियम बना लिया कि श्रमिकों को लस्सी बाँटनी है। श्रमिक तेज़ झुलसती धूप में अपनी प्यास बुझा कर वृद्धा को दुआयें देते व उसका आभार मानते।दिन बीतने लगे, मन्दिर का निर्माण कार्य समाप्त होने वाला था।

मन्दिर के निर्माण कार्य में सहयोग

केवल मन्दिर के दुर्ग के सिरे पर एक पत्थर रखने का कार्य शेष था। वृद्धा स्त्री के हृदय में बराबर कसक बनी रहती कि वह कैसे अधिक से अधिक सेवा कर सके।वह सोचती कि कहीं मैं इस सेवा के सुनहरी अवसर से चूक न जाऊँ। खुद को कोसती, धिक्कार है मेरे जीवन को मैंने मन्दिर के निर्माण कार्य में कुछ भी सहयोग नहीं दिया। एक दिन उसकी नज़र अपनी झोंपड़ी के सामने एक बड़े पत्थर पर पड़ी। वह टकटकी लगाकर देखते हुए सोचने लगी, “क्या यह मन्दिर में नहीं लग सकता? यही मेरी सम्पत्ति है।

तुरन्त वह श्रमिकों के पास गई व विनय करने लगी, “पुत्र! मेरी एक प्रबल इच्छा है; मुमकिन हो सके तो पूरी कर दो। मेरे झोंपड़े के सामने एक बड़ा पत्थर है जो मेरी एकमात्र सम्पत्ति है। क्या तुम उसे मन्दिर में इस्तेमाल कर सकते हो।

मुख्य शिल्पकार, माता अज़ाहगी के साथ उसके झोंपड़े तक आया। पत्थर पसंद कर श्रमिकों द्वारा वह पत्थर लाकर तराशा गया। तत्पश्चात् उसे मन्दिर के दुर्ग के सिरे पर रख दिया गया। वृद्धा अज़ाहगी की मनोकामना पूर्ण हुई।

मन्दिर का कार्य पूरा हो गया। राजा, मन्दिर की कला व सुन्दरता देखकर अति प्रसन्न हुए और सोचने लगे कि “ऐसा भव्य मन्दिर तो कहीं भी नहीं देखा।”

राजा के स्वप्न में भगवान्

उस रात्रि जब राजा विश्राम कर रहे थे तो उन्होंने स्वप्न में देखा कि भगवान् फ़रमा रहे हैं, “हे राजन्!

मैं वास्तव में तुम्हारे मन्दिर के निर्माण कार्य से प्रसन्न हूँ किन्तु वृद्धा अज़ाहगी के पत्थर तले विश्राम कर मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हो रही है। वृद्धा के अद्वितीय प्रेम व लगन पर मैं । अति प्रसन्न हूँ।”

हठात् स्वप्न देख कर राजा नींद से उठ बैठे और । सोचने लगे, “मैंने इतना विशाल भव्य भवन बनवाया परन्तु प्रभु वृद्धा अज़ाहगी की महिमा गा रहे हैं। क्या यह स्वप्न है या सत्य है? ज़रूर शहर में पता करवाना चाहिए।”

पूछताछ की गई। वृद्धा अज़ाहगी का पता मिल गया। राजा स्वयं उसके झोंपड़े तक पधारे और पूछा, “माता!  तुमने प्रभु की कौनसी ऐसी सेवा की है जिस पर प्रभु ने मुझे फरमाया है कि वे तुम पर अति प्रसन्न हैं।”

माता अज़ाहगी के नेत्रों से अश्रु की धारा बहने लगी। प्रेम विह्वल हो उसने नम्रतापूर्वक सारा वृत्तान्त कह सुनाया।

राजा कहने लगे, “माता! तुम बहुत ही पुण्यात्मा हो। तुम महान् हो। तुमने अपने प्रेम-पाश में प्रभु को बाँध लिया। है। हे प्रभु! मुझे भी ऐसे प्रेम सहित सेवा करने की सामर्थ्य बख्शो।” आज भी इस स्थल पर इस पुण्यात्मा वृद्धा अज़ाहगी की याद में वहाँ एक सरोवर स्थित है।

यह है निष्काम सेवा का महत्व

प्रभु सच्ची निष्ठा, निष्काम सेवा व प्रेम की डोरी में बँध जाते हैं। फिर सेवक को वह अपनी अगाध दया व असीम कृपा से मालोमाल करते हैं। ऐसे सेवक पर प्रभु अनवरत कृपा का मेह बरसाते हैं ।

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