जीव के सच्चे हितैषी सतगुरु ही गुप्त व प्रकट दोनों रूपों में हर प्रकार से सेवक की रक्षा करते हैं

जीव के सच्चे हितैषी सतगुरु

सतगुरु आदिकाल से ही जीवों की भलाई चाहते आये हैं। प्रारम्भ से ही उनकी मौज यही रही है कि जीव काल व माया के चक्कर में न पड़ कर, भक्ति व परमार्थ के शुभ कार्यों में लगकर, अपने मनुष्य जन्म के उद्देश्य को प्राप्त कर सके।

इसीलिए वे अपने पर नाना प्रकार के कष्ट झेलते हुए जिज्ञासुओं को सर्वोत्कृष्ट नाम प्रदान करते हैं। वे जीव की आत्मा एवं शरीर दोनों के हितचिन्तक होते हैं। जैसे कि इस निम्नलिखित दृष्टान्त से चरितार्थ होता है ।

प्राचीन समय में एक महात्मा जी जंगल में अपनी शिष्य मण्डली के साथ एक आश्रम में निवास करते थे। आश्रम में जिस प्रकार की सेवा होती, श्रद्धालु सेवक उसे पूर्ण श्रद्धा एवं परिश्रम से करते । सेवा से अवकाश पाकर सत्संग का लाभ उठाते। इस प्रकार प्रभु चरणों में उनकी दिन दुगुनी व रात चौगुनी आस्था बढ़ती गई। उनके सब शिष्यों में से एक शिष्य अत्यधिक श्रद्धालु व सदैव आज्ञा- पालन में तत्पर रहने वाला था ।

एक बार का वृत्तान्त है कि महात्मा जी का तीर्थ यात्रा पर जाने का विचार हुआ। उन दिनों वर्तमान युग की न्याईं यातायात के साधन उपलब्ध न थे । प्रायः पद यात्रा ही

करनी पड़ती थी। महात्मा जी ने चलते समय उस श्रद्धालु शिष्य को साथ ले लिया। यात्रा में काम आने वाली आवश्यक सामग्री को लेकर दोनों ने वहाँ से प्रस्थान किया ।

दिन भर पर्यटन करने के उपरान्त रात्रि का जब आगमन हुआ, तब उन्होंने जंगल में ही विश्राम करना चाहा। रात्रि के समय क्योंकि वन्य पशुओं के आक्रमण करने की सम्भावना थी । अतः इस विचार से महात्मा जी ने शिष्य से कहा कि- निरन्तर यात्रा करने के कारण हम भी श्रान्त हो चुके हैं और तुम भी थके हुए प्रतीत होते हो, इसलिए उचित यही रहेगा कि पहले हम अर्द्ध रात्रि तक विश्राम करते हैं और तुम जागते रहो तथा आधी रात के बाद हमें जगा देना, पश्चात् तुम सो लेना क्योंकि जंगल का स्थान है – इसलिए सावधान रहना ही उचित है।

तब सेवक ने करबद्ध विनम्र प्रार्थना की कि – प्रभो ! आप विश्राम करें; मैं सारी रात्रि जागरण कर पहरा दूँगा। इस पर महात्मा जी ने कहा- ‘अब तो नित्यप्रति ही यात्रा करनी है, तुम कब तक ऐसे जागते रहोगे। इस शरीर से काम लेने के लिए निद्रा की परम आवश्यकता है।’

सेवक ने पुनः विनय की- भगवन्! जैसी आपकी मौज ।

तदुपरान्त महात्मा जी विश्राम में हो गए और सेवक चरणों की सेवा करता रहा। महात्मा जी ने सोते समय पुनः उससे

कहा था कि-प्रेमी ! आधी रात बीतने पर हमें अवश्य जगा देना । लेकिन शिष्य ने महात्मा जी को विश्राम से उठाना उचित न समझा और दिल में कहने लगा-हाय ! क्या मैं अपने इस नश्वर शरीर के आराम के लिए अपने इष्टदेव को जगाकर कष्ट दूँ ? नहीं, नहीं, यह तो मुझ से न होगा। अतएव उसने उन्हें न जगाया ।

आधी रात बीतने पर महात्मा जी स्वयं ही जागे और उस प्रेमी से कहने लगे कि ‘तुमने हमें जगाया क्यों नहीं ?” यह सुनकर सेवक मौन हो रहा। फिर महात्मा जी ने कहा कि प्रातः फिर यात्रा में चलना है ।

अतः तुम विश्राम कर लो। उनकी आज्ञा पाकर सेवक निद्रा देवी की गोद में विश्राम पाने लगा। सेवक थका हुआ तो था ही, लेटते ही उसको गहरी नींद ने आ घेरा ।

महात्मा जी जाग रहे थे। इतने में क्या हुआ कि झाड़ियों में से खड़खड़ाहट की ध्वनि सुनाई दी और तत्काल ही एक काला सर्प उधर आता हुआ दिखाई दिया। उसे देख महात्मा जी ने अन्तर्दृष्टि से यह जान लिया कि यह किस कारण से इधर आ रहा है।

उन्होंने सर्प से पूछा कि तुम इधर कहाँ जाना चाहते हो ? साँप ने उत्तर दिया- ‘यह जो आदमी निद्रावस्था में पड़ा है, इसके साथ मेरा कई जन्मों से लेन देन का व्यापार चल रहा है।

मैं एक जन्म में साँप बनकर इसके गले का खून पीता हूँ, फिर दूसरे जन्म में मैं आदमी बनता हूँ और यह साँप बनकर मेरे गले का रक्त पीता है। इसी नियम के अनुसार ही मैं आज फिर इसके गले का खून पीने को आया हूँ ।

अतः आप इसमें कोई बाधा की दीवार खड़ी न करें तथा मुझे अपना बदला लेने दें।

तब महात्मा जी ने पुनः साँप से पूछा- तुमने इसके गले का खून ही लेना है या इसको काटना भी है ? सर्प ने उत्तर में कहा कि मुझे काटने से कोई विशेष प्रयोजन नहीं, मैंने तो इसके गले के खून से अपनी तृषा शान्त करनी है।

उत्तर पाकर महात्मा जी ने कहा- ठीक है! तुम यहाँ रुको। हम तुम्हें इसके गले का लहु ला देते हैं। यह सुनकर वह सर्पदेव वहीं रुक गया।

इधर महात्मा जी के मन में विचार आया कि हमारा कहना युक्ति-संगत ही है । यदि साँप इसको काटता है, तो इस जंगल में सर्प दंश के उपचार का कोई साधन उपलब्ध न होने के कारण विष के प्रभाव से यह मृत्यु का ग्रास बन जायेगा; दूसरा इन दोनों के कर्मों का सिलसिला कई जन्मों तक चलता रहेगा।

भविष्य के परिणाम को सोचकर महात्मा जी ने अपने सामान में से चाकू निकाला और सेवक की छाती पर बैठकर उसके गले से खून निकालने लगे।

श्रद्धालु सेवक ने जो कि नींद में अचेत पड़ा था, एकाएक छाती पर बोझ व गले पर चाकू चलता देख चौंककर देखा कि मेरे वक्षःस्थल पर मेरे सतगुरु ही विराजमान् होकर यह कार्य कर रहे हैं, उसने तुरन्त ही अपनी आँखें मूँद लीं।

वह दिल में सोचने लगा कि यदि अन्य कोई होता तो मैं उससे अवश्य पूछता परन्तु यह तो मेरे अपने ही परम हितैषी गुरुदेव विराजमान हैं। इन्होंने इस कार्य में मेरी भलाई ही सोची होगी।

महात्मा जी ने चाकू से उसके गले से खून की बूँदें निकाली और बर्तन में डालकर साँप के आगे बर्तन रख दिया। खून पी कर साँप चलता बना।

तब महात्मा जी ने अपने दुपट्टे में से कपड़ा फाड़कर सेवक के गले पर पट्टी बाँध दी। प्रभात होने पर महात्मा जी ने सेवक को जगाया और दोनों सामान उठाकर यात्रा पर चल दिये ।

अब सतगुरु द्वारा किए गए घाव की पीड़ा अनुभव होने पर भी सेवक ने किसी प्रकार की बात अपने गुरु जी से पूछनी उचित न समझी। यद्यपि सेवक के गले पर पट्टी बँधी हुई थी।

दो तीन घण्टे व्यतीत हो जाने पर भी जब सेवक ने कोई बात न पूछी, तब गुरु जी से न रहा गया। कहने लगे कि रात को जब हम तेरी छाती पर बैठकर गले पर चाकू

चला रहे थे उस समय आँखें खोलने पर भी तुमने हमसे कुछ न कहकर पुनः नेत्र मूँद लिये और अब तक भी उसी दशा में मौन धारण किए चल रहे हो, क्यों ?

तब सेवक ने विनती की – भगवन्! मैं यदि किसी अपरिचित पुरुष को अपने वक्षःस्थल पर बैठा देखता तब तो मैं पूछता।

मुझे तो इस बात का अचल विश्वास है कि आप सदैव मेरे कल्याण की ही सोचते हैं। इसलिए उस अवस्था में भी आपको देखकर मेरे मन में कोई भी संकल्प पैदा न हुआ। सेवक के विश्वास एवं प्रेम-सने शब्द सुनकर गुरु जी ने रात्रि वाली सब घटना कह सुनाई।

यह सब सुनकर सेवक उनके चरणों में गिर पड़ा तथा प्रार्थना करने लगा कि – हे प्रभो ! मुझे तो पूर्ण विश्वास था ही कि आप हर प्रकार से मेरा हित ही करते आ रहे हैं और इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण यह रात वाली घटना है।

अगर साँप मुझे रात को काट जाता तो उससे मेरी मृत्यु हो जाती जिससे मैं आवागमन के चक्र में न मालूम कब तक भटकता रहता । आप मेरे केवल शरीर के ही नहीं, मेरी आत्मा के भी परम हितैषी हैं। आपके उपकारों से मैं कदापि उऋण नहीं हो सकता।

यह तो मेरा परम सौभाग्य है कि मुझे सुखों की खानि व परम कल्याणमयी आपकी शरण प्राप्त हुई है जिससे मेरा यह लोक भी सुखप्रद व परलोक भी आनन्दमय होगा।

इस सम्पूर्ण कथा का तात्पर्य यह है कि किये हुए कर्मों का फल प्रत्येक दशा में जीव को भोगना ही पड़ता है।

चाहे वे अच्छे कर्म हों अथवा बुरे परन्तु सद्गुरु की शरण में जाने से जीव के दुष्कर्म सूली से काँटा बन जाते हैं जैसे कि आप ऊपर वाले दृष्टान्त में पढ़ चुके हैं, वे भी तब जबकि जिज्ञासु प्रेम, श्रद्धा एवं निष्काम भाव से उन की मौज व आज्ञानुसार जीवन व्यतीत करे और सब प्रकार से अपने सद्गुरु पर निश्चय करके उन्हें अपना हितैषी समझे।

तब सद्गुरु भी उस सेवक की गुप्त व प्रकट दोनों रूपों में हर प्रकार से रक्षा करते हैं जिसका अनुभव उस सच्चे सेवक को ही होता है।

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