अनमोल वचन
संतो के अनमोल वचन
1.) जिस प्रकार किसी शारीरिक रोग का निवारण किसी चिकित्सक की शरण में जाने तथा उसके कहे अनुसार औषधि का सेवन करने तथा कुपथ्य से बचने से ही होता है, उसी प्रकार मानसिक रोगों से छुटकारा भी सद्गुरु की शरण में जाने तथा उनके उपदेशानुसार नाम का सुमिरण करने तथा विषयों से परहेज़ करने से ही होता है।
2.) जब तक तुम्हारे हृदय में संसार की प्रीति विद्यमान है, तब तक ईश्वर तुम से दूर है । संसार की प्रीति को हृदय से हटाकर ईश्वर को याद करो, वे तुरन्त तुम्हारे हृदय में आ विराजेंगे।
3.) जिस प्रकार हंस दूध को ग्रहण कर लेता है और पानी को छोड़ देता है अर्थात असार को छोडकर सार का ग्रहण कर लता है, उसी प्रकार भक्त एवं गरुमखजन सार वास्तु अथात् भक्ति को ग्रहण कर लेते हैं और संसार के भोग, जो असार हैं, उन्हें त्याग देते हैं।
स्वाभाविक ही सुमिरण होने लगे तो मन सुमिरण है।
4.) चलते-फिरते. उठते-बैठते, खाते-पीते, सोतेगत-इन सब अवस्थाओं में स्वाँस की प्रक्रिया जिसप्रकार स्वाभाविक ही जारी रहती है, उसी प्रकार अवस्थाओं में स्वाभाविक ही सुमिरण होने लगे तो मन सुमिरण है।
5.) बाह्य संसार में सच्चे सुख की खोज करना वैसा है जैसे पानी में से मक्खन निकालने का प्रयत्न करना, जिससे सारी आयु लगे रहने पर भी सफलता नहीं मिल सकती। सुख जब भी प्राप्त होगा, वृत्ति को अन्तर्मुख करने से ही प्राप्त कर क्योंकि सच्चे सुख का भण्डार मनुष्य के अपने अन्दर विद्यमान है।
6.) दाद को खुजलाने में पहले सुख प्रतीत होता है, परन्तु बाद में असह्य कष्ट होता है। उसी प्रकार शरीर-इन्द्रियों के भोग मनुष्य को पहले बड़े सुखदायक प्रतीत होते हैं, परन्तु परिणाम इनका दुःख ही दुःख है।
7.) मनुष्य जिस प्रकार की संगति में उठता-बैठता है, उसी प्रकार के उसके मन में विचार उत्पन्न होते हैं और जैसी उसकी विचारधारा होती है, उसी के अनुरूप ही उसका जीवन बन जाता है। इसलिये यदि चाहते हो कि तुम्हारा जीवन सत्यम शिवं सन्दरं बन जाये और सख-शान्ति से भरपूर हो जाय । सत्संगति ग्रहण करो।
8 .) तुम कितनी दूरी तय कर चुके हो, यह बात उत महत्त्वपूर्ण नहीं, जितनी यह कि तुम सही मार्ग पर चल रहे होया नहीं।
9.) मनुषय का सबसे बड़ा शत्रु है-आलस्य। अतएव कभी भी अपने निकट नहीं फटकने देना चाहिये।
10.) ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिये न चतुराई की आवश्यकता है, न विद्वत्ता की और न ही धन-सम्पदा तथा वैभव की। उसके लिये तो पवित्र, शुद्ध एवं निर्मल हृदय की आवश्यकता है।
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