अनमोल वचन – प्रेरणा और शिक्षा प्रदान करने वाले

अनमोल वचन

  • दूसरों को खिला कर खाने वालों के भंडार हमेशा प्रभु कृपा से भरे रहते हैं, उनके भंडार कभी खाली नहीं रहते। प्रभु सबको खिलाकर स्वयं भोग लगाते हैं। प्रभु तो हमारे पैदा होते ही हमारे दूध का प्रबंध कर देते हैं, पर एक इंसान ही ऐसा है जोकि भगवान से सब नियामतें पाने के बाद भी उसका धन्यवाद तक नहीं करता।

दुनिया चाहे आपको कितना भी हारा हुआ माने लेकिन आप कभी अपनी नजरों में हार मत मानना ।

  • बातें नहीं, काम बड़े करो क्योंकि लोगों को सुनाई कम, दिखाई ज्यादा देता है।
  • परेशानी में जो अनुभव और सीख मिलती है, वह सीख दुनिया का कोई भी स्कूल नहीं दे सकता।
  • जिंदगी आसान बनाने के दो तरीके- पहला गुस्से में थोड़ा रुक जाना और दूसरा, गलती में थोड़ा झुक जाना ।
  • सोच को हमेशा अच्छा रखो क्योंकि नजर का इलाज संभव है लेकिन नजरिए का नहीं।
  • जीवन की यात्रा में आपको दूसरों से ज्यादा अपने आपकी जरूरत है।
  • एक चूहे ने हीरा निगल लिया। हीरे के मालिक ने शिकारी को बुलाया। वहां कई चूहे एक-दूसरे पर चढ़े बैठे थे। एक चूहा अलग से बैठा था। शिकारी ने पूछा किस चूहे ने तुम्हारा हीरा निगला है ? मालिक ने कहा जो चूहा सबसे अलग बैठा है क्योंकि जब धन आ जाता है तो व्यक्ति अपनों से अलग रहने लगता है। धन पचाना भी हर किसी के वश की बात नहीं। -डा. अब्दुल कलाम
  • जीवन में बने रिश्ते तोड़ना मत क्योंकि पानी कितना भी गंदा हो जाए, पीने योग्य न हो तो भी आग बुझाने के काम आ जाता है। छोटे आदमी भी बड़े काम के होते हैं, जो काम वे कर सकते हैं, आप नहीं कर सकते। रेत पर गिरी चीनी चींटी उठा सकती है, आप नहीं। – अज्ञात
  • मां-बाप पेड़ की तरह होते हैं। उनकी जड़ नहीं काटें। जड़ काटने से पेड़ हरा-भरा नहीं रहता। वे जिंदगी की मेहनत की पाई-पाई अपनी औलाद पर खुशी-खुशी खर्च कर देते हैं। संतान मां-बाप के पंख होती है जिनके सहारे मां-बाप उड़ते हैं। – अमिताभ बच्चन

संतो के अनमोल वचन

1.) जिस प्रकार किसी शारीरिक रोग का निवारण किसी चिकित्सक की शरण में जाने तथा उसके कहे अनुसार औषधि का सेवन करने तथा कुपथ्य से बचने से ही होता है, उसी प्रकार मानसिक रोगों से छुटकारा भी सद्गुरु की शरण में जाने तथा उनके उपदेशानुसार नाम का सुमिरण करने तथा विषयों से परहेज़ करने से ही होता है।
2.) जब तक तुम्हारे हृदय में संसार की प्रीति विद्यमान है, तब तक ईश्वर तुम से दूर है । संसार की प्रीति को हृदय से हटाकर ईश्वर को याद करो, वे तुरन्त तुम्हारे हृदय में आ विराजेंगे।

3.) जिस प्रकार हंस दूध को ग्रहण कर लेता है और पानी को छोड़ देता है अर्थात असार को छोडकर सार का ग्रहण कर लता है, उसी प्रकार भक्त एवं गरुमखजन सार वास्तु अथात् भक्ति को ग्रहण कर लेते हैं और संसार के भोग, जो असार हैं, उन्हें त्याग देते हैं।

स्वाभाविक ही सुमिरण होने लगे तो मन सुमिरण है।

4.) चलते-फिरते. उठते-बैठते, खाते-पीते, सोतेगत-इन सब अवस्थाओं में स्वाँस की प्रक्रिया जिसप्रकार स्वाभाविक ही जारी रहती है, उसी प्रकार अवस्थाओं में स्वाभाविक ही सुमिरण होने लगे तो मन सुमिरण है।

5.) बाह्य संसार में सच्चे सुख की खोज करना वैसा है जैसे पानी में से मक्खन निकालने का प्रयत्न करना, जिससे सारी आयु लगे रहने पर भी सफलता नहीं मिल सकती। सुख जब भी प्राप्त होगा, वृत्ति को अन्तर्मुख करने से ही प्राप्त कर क्योंकि सच्चे सुख का भण्डार मनुष्य के अपने अन्दर विद्यमान है।

6.) दाद को खुजलाने में पहले सुख प्रतीत होता है, परन्तु बाद में असह्य कष्ट होता है। उसी प्रकार शरीर-इन्द्रियों के भोग मनुष्य को पहले बड़े सुखदायक प्रतीत होते हैं, परन्तु परिणाम इनका दुःख ही दुःख है।

7.) मनुष्य जिस प्रकार की संगति में उठता-बैठता है, उसी प्रकार के उसके मन में विचार उत्पन्न होते हैं और जैसी उसकी विचारधारा होती है, उसी के अनुरूप ही उसका जीवन बन जाता है। इसलिये यदि चाहते हो कि तुम्हारा जीवन सत्यम शिवं सन्दरं बन जाये और सख-शान्ति से भरपूर हो जाय । सत्संगति ग्रहण करो।

8 .) तुम कितनी दूरी तय कर चुके हो, यह बात उत महत्त्वपूर्ण नहीं, जितनी यह कि तुम सही मार्ग पर चल रहे होया नहीं।

9.) मनुषय का सबसे बड़ा शत्रु है-आलस्य। अतएव कभी भी अपने निकट नहीं फटकने देना चाहिये।

10.) ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिये न चतुराई की आवश्यकता है, न विद्वत्ता की और न ही धन-सम्पदा तथा वैभव की। उसके लिये तो पवित्र, शुद्ध एवं निर्मल हृदय की आवश्यकता है।

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