Shri Anandpur

Shri Anandpur dham

Shri Anandpur dham

श्री परमहंस अद्वैत मत के महान केन्द्र श्री आनन्दपुर की स्थापना

श्री परमहंस दयाल जी श्री प्रथम पादशाही जी महाराज ने रूहानियत के उच्च सिद्धान्तानुसार भक्ति-परमार्थ का महान केन्द्र बनाने के लिए संकेत किया था।

श्री सद्गुरुदेव महाराज जी श्री दूसरी पादशाही जी ने श्री परमहंस दयाल जी की श्री मौज को साकार रूप देने एवं युग-युगान्तरों तक अमर सत्यता की ज्योति को प्रदीप्त रखने के लिए सन् 1929 ई० में इस महान पारमार्थिक केन्द्र ‘श्री आनन्दपुर सत्संग आश्रम’ की स्थापना करने की योजना बनाई।

अतएव आपने सिन्ध एवं पंजाब आदि के स्थानों को कृतार्थ करते हुए मध्यप्रदेश में पदार्पण किया। केवल महात्मा सत् विचारानन्द जी को साथ लेकर ग्वालियर राज्य में पधारे। यहां पर भूमि के कुछ भाग का सर्वेक्षण कर शीघ्र ही यहां से लौट गए।

श्री परमहंस अद्वैत मत के इस महान केन्द्र ‘श्री आनन्दपुर सत्संग आश्रम’ की स्थापना करने के लिए धुरधाम से उतरी हुई दिव्य मौज को पूरा करने के लिए श्री सद्गुरुदेव महाराज जी ने दृढ़ निश्चय कर लिया।

‘यह स्थान आध्यात्मिक ने शिक्षा का केन्द्र बनकर सृष्टि में विख्यात होगा। देश-विदेश के कोने-कोने से आत्मिक शान्ति के अभिलाषी यहां आयेंगे और यह अमर सत्यता का प्रतीक विश्व में सुख, शान्ति और आनन्द से सबको मालामाल करेगा।

Shri Anandpur dham के लिए भूमि खरीदना

त्रिकालदर्शी प्रभु इस मोज को शीघ्र ही पूर्ण करना चाहते थे। श्री सद्गुरुदेव महाराज जी ने इस उद्देश्य को सम्मुख रखते हुए स्थापना हेतु कार्य आरम्भ किया।

जनवरी सन् 1930 में श्री सद्गुरुदेव महाराज जी खीवड़ा नमक मंडी तहसील पिण्डदादनखां जिला जेहलम में विराजमान थे। सीमाप्रान्त की काफ़ी संगत श्री दर्शन के लिए वहां आई हुई थी।

उनमें निम्नलिखित मुख्य थे – श्री सद्गुरुदेव महाराज जी श्री चतुर्थ पादशाही जी, महात्मा सद्गुरु सेवानन्द जी, महात्मा योग प्रकाशानन्द जी, महात्मा योगात्मानन्द जी, महात्मा ध्यान योगानन्द जी, महात्मा शान्तात्मानन्द जी (ये सब उस समय भक्त वेष में थे), भक्त धर्मजस जी व कुछ अन्य प्रेमी भी थे।

श्री सद्गुरुदेव महाराज जी श्री दूसरी पादशाही जी ने इन्हें अपने पास बुलाकर फ़रमाया कि ग्वालियर रियासत में एक आश्रम बनाना है, जहां पर गुरुमुखों का निवास होगा।

इस समय वहां जंगल ही जंगल है। कौन-कौन वहां सेवा के लिए जाना चाहता है। इन सब सेवकों ने श्री मौज को स्वीकार किया। आपने फ़रमाया कि अच्छी तरह सोच लो।

वहां जंगल में कई तरह के कष्ट सहन करने पड़ेंगे। सबने प्रार्थना की-प्रभो! आपकी प्रसन्नता के लिए हमें सब कुछ स्वीकार है।

इसके अतिरिक्त अन्य दस-बारह परिवारों ने भी श्री चरणों में शरणागति प्राप्त की तथा ग्वालियर जाने के लिए श्री आज्ञा मांगी। इस तरह से बीस परिवार उस समय ग्वालियर जाने को तैयार हो गए। आपने सबको फ़रमाया- अच्छा, तैयार रहो। जब जाना होगा, सूचित किया जायेगा।

तत्पश्चात् महात्मा शान्तात्मानन्द जी व भक्त धर्मजस जी को ज़मीन का निरीक्षण करने के लिए भेजा और फ़रमाया कि जिला गुना तथा ईसागढ़ के पास की ज़मीन को भी देख लेना।

जब ये दोनों ग्वालियर रियासत के जंगलों में पहुँचे, तो इस निर्जन घने जंगल को देखकर हैरान हो गए कि इस धरती को श्री सद्गुरुदेव महाराज जी ने कैसे योग्य समझा है। इस धरती को उपजाऊ कैसे बनाया जाएगा। इस कठोर तथा पथरीली भूमि को सरकार भी उपजाऊ बनाने में असमर्थ है।

ज़िला ग्वालियर, शिवपुरी तथा ज़िला गुना की सब ज़मीन (चक) जो बिकाऊ थी, ग्वालियर राज्य के कर्मचारियों ने इनको दिखाई।

कहीं पहाड़, कहीं पत्थर, कहीं घने वन तथा पानी के न होने का सब वृत्तान्त श्री सद्गुरुदेव महाराज जी के श्री चरणों में लिख दिया।

वहां से कृपा-पत्र आया कि सब जगह छोड़कर केवल ईसागढ़ के समीप का वन्य प्रदेश (जहां आजकल श्री आनन्दपुर है) देखो। जब ये दोनों भक्त इस वन्य प्रदेश में पहुँचे तो यह स्थान उन्हें बिल्कुल पसन्द न आया, क्योंकि यहां पानी की एक बूँद भी न थी।

ग्वालियर राज्य के कर्मचारियों ने कहा कि यहां राज्य की ओर से एक कुआँ खुदवा दिया जाएगा। महात्मा शान्तात्मानन्द जी व भक्त धर्मजस जी ने श्री आनन्दपुर की भूमि का भी सारा हाल श्री चरणों में लिखा कि यहां जंगल ही जंगल है; पथरीली और बंजर भूमि है; पानी भी नहीं है। ईसागढ़ यहां से तीन मील की दूरी पर है।

इससे तो ज़िला ग्वालियर तथा शिवपुरी की ज़मीन ही अच्छी है, जहां उपज भी हो सकती है क्योंकि वहाँ पानी की भी सुविधा है। शहर भी साथ में ही है।

इनका पत्र श्री चरणों में पहुँचते ही वहां से कृपा-पत्र आया कि ग्वालियर, शिवपुरी वाली जगह को छोड़कर केवल ईसागढ़ के समीप की जगह ही लेनी है। इस जगह को लेने का निर्णय हो गया।

राज्य कर्मचारियों से श्रीआनन्दपुर, शान्तपुर, कुलवार की सीमाबन्दी करवाई गई और श्री चरणों में विनय पत्रिका लिखी गई कि डिपॉज़िट के लिए धनराशि किसी के हाथ ग्वालियर भेजी जाये। तब वहां से श्री स्वामी जी श्री चौथी पादशाही जी महाराज व महात्मा ध्यान योगानन्द जी धनराशि लेकर ग्वालियर पहुँचे।

महात्मा शान्तात्मानन्द जी व भक्त धर्मजस जी भी ग्वालियर पहुँच गये। 4 अगस्त 1930 को डिपॉज़िट जमा करवा कर इन तीनों जगह का अधिकार प्राप्त कर लिया गया। इस प्रकार इस ज़मीन पर अधिकार प्राप्त करने में सात मास लग गए।

अधिकार प्राप्त करने के बाद महात्मा शान्तात्मानन्द जी इस ज़मीन की देखरेख के लिए यहां रह गए। शेष सब लौट गये और श्री चरणों में पहुँचकर सारा वृत्तांत प्रस्तुत किया।

जो भक्त लोग खीवड़ा मण्डी में स्वयं को श्रीचरणों में शरणागत कर चुके थे, उनके नाम श्री आज्ञा भेजी गई कि ग्वालियर जाने को तैयार हो जाओ।

यह स्थान जो ग्वालियर राज्य में खरीदा गया है और जहां पर भेजा जा रहा है। उसका नाम ‘श्री आनन्दपुर’ होगा। यह एक महान पारमार्थिक केन्द्र श्री आनन्दपुर के नाम से दुनिया में विख्यात होगा।

श्री आज्ञा पाकर 18 अगस्त सन् 1930 को दो परिवार महात्मा योगात्मानन्द जी (भक्त वेष में) व भक्त धर्मजस जी लक्की मरवत् से चलकर 21 अगस्त को यहां पहुँचे।

उसके बाद यहां और भी भक्त श्री आज्ञा से आये। सबके लिए यह अचम्भे की बात थी कि सन्त-महात्मा इस भूमि को कैसे आबाद करेंगे। यह अचम्भा आज कार्य रूप में बदलकर सबके सामने प्रकट है।

4 अगस्त 1930 को तीन चक श्री आनन्दपुर, शान्तपुर व कुलवार खरीदे गए थे । कुछ समय के पश्चात् सुखपुर, टकनेरी व दयालपुर की भी डिपॉजिट ग्वालियर राज्य में जमा करवाकर इनके भी अधिकार प्राप्त कर लिए गए।

इन सब चकों की भूमि बंजर तथा अनुपजाऊ थी। इसके अतिरिक्त एक चक शक्करा जो आबाद था, उसको भी ग्वालियर राज्य से खरीदा गया।

यहां पर श्री सद्गुरुदेव महाराज जी श्री दूसरी पादशाही जी ने श्री स्वामी बेअन्त आनन्द जी महाराज (भक्त वेष में) को इन सब चकों का मुखिया बनाया और शरणागत परिवारों की ज़रूरत को पूरा करने का आदेश दिया।

सन् 1931 में आप भखड़ेवाली में विराजमान थे। वहां पर श्री स्वामी बेअन्त आनन्द जी महाराज श्री आज्ञानुसार श्री दर्शन के लिए आए। यहां पर आपने इनको साधु वेष प्रदान कर इनका शुभ नाम श्री स्वामी बेअन्त आनन्द जी रखा।

आपने इन के ज़िम्मे काफ़ी सेवा लगाई हुई थी, जिसको इन्होंने पूर्णतया निभाया। आप बड़े प्यार से इन्हें फ़रमाते थे- “ये तो हैं ही बेअन्त । ये दरबार के सच्चे लाल हैं। हमारे दिल के टुकड़े हैं।” यही नाम इनका आगे चलकर यथार्थ रूप से सिद्ध हुआ।

इनकी दयालुता का भी अन्त न रहा और महिमा का भी। इनकी विनय पर श्री सद्गुरुदेव महाराज जी ने श्री आनन्दपुर में कृपा की।

उस समय तक श्री आनन्दपुर में अभी थोड़ी सी ज़मीन को साफ़ कर घास-फूस की झोंपड़ियां ही बनाई गई थीं। यातायात के साधन सुगम न थे और न ही शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति के यहां साधन सुलभ थे। वर्षा ऋतु में ये झोंपड़ियां अत्यधिक वर्षा के कारण बह जाती तथा तेज़ हवाओं से छतें उड़ जाती थीं।

श्री सद्गुरुदेव महाराज जी के सम्मुख बाहर से आई हुई संगत ने इन कठिनाइयों के लिए विनय की। आपने सबको आश्वासन दिया कि धीरे-धीरे यहां सब कुछ बन जाएगा, घबराने की ज़रूरत नहीं। इस प्रकार उनको आश्वासन देकर तथा कुछ दिन यहां श्री दर्शन देकर पुनः सत्संग कार्य के लिए लौट गए।

आप सब स्थानों का परिभ्रमण कर पुनः चकौड़ी सन्त आश्रम में लौट आते थे। इस प्रकार आप मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश को कृतार्थ कर पुनः पंजाब में आये।

अब नित्यप्रति शरणागतों की संख्या बढ़ती जा रही थी। आपकी लीला मन-वाणी से परे है। आप क्या-क्या करते थे, इसका विशद विवरण देना अत्यन्त कठिन है।

सन् 1933 में आपने शरणागतों के आग्रह पर श्री आनन्दपुर में कृपा पुनः की और श्री दर्शन के लिए संगतों को आने की आज्ञा प्रदान की।

श्री दर्शन के लिए यहां संगतें आने लगीं। केवल श्री सद्गुरुदेव महाराज जी के लिए एक पत्थरों का कमरा बनवाया गया था, शेष सब झोंपड़ियां थीं। उस समय कृषि विभाग के कृषि मंत्री श्री बापू राव पुवॉर भी श्री दर्शन के लिए आये।

उसने श्री चरणों में विनय की कि महाराज! इस भूमि को तो सरकार भी उपजाऊ बनाने के लिए असमर्थ है तथा अन्य कई लोग भूमि खरीदकर असफल हो इसे छोड़कर चले गए हैं, आप इसे कैसे आबाद करेंगे? बंजर भूमि तथा घना वन है।

श्री वचन हुए– “यहां पर ढाक के स्थान पर अमराइयाँ झूमेंगी। चारों ओर उद्यान ही उद्यान होंगे। चिकित्सालय, भव्य भवन, पाठशाला तथा पक्की सड़कों का निर्माण होगा। यहां एक महान सरोवर होगा जिसके जल को लोग शीशियों में भरकर ले जाएँगे। यह एक तीर्थधाम बनेगा। यहां और बहुत कुछ होगा।

” ये वचन सुनकर वह कृषि मन्त्री नतमस्तक हो गया। उसने मन ही मन सोचा कि सन्तों की लीला न्यारी है। उनके रहस्यों को बुद्धि द्वारा जानना कठिन है।

श्री सद्गुरुदेव महाराज जी श्री तीसरी पादशाही जी ने कालान्तर में इन श्री वचनों को साकार रूप दिया और वर्तमान समय तक युग पुरुष महान विभूतियां उन श्री वचनों को साकार रूप दे रही हैं। आपने श्री आनन्दपुर में कुछ समय तक गुरुमुख शरणागतों को श्री दर्शन से कृतार्थ किया।

श्री आनन्दपुर निवासी सेवकों को परिश्रम करके इसे आबाद करने की आज्ञा प्रदान कर स्वयं सत्संग उपदेश के लिए प्रस्थान किया। श्री आनन्दपुर का सम्पूर्ण हाल ‘श्री आनन्दपुर सत्संग आश्रम के प्रकरण में दिया गया है।

आप एक वर्ष में कितने ही स्थानों को कृतार्थ करते, इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। कई बार आप मौज वश दो-चार मास एक स्थान पर ठहर जाते और कई बार चार मास में सम्पूर्ण पंजाब, सीमाप्रान्त तथा उत्तरप्रदेश (जहां पर इस सम्प्रदाय के आश्रम स्थापित थे) को कृतार्थ कर देते।

इन सबका मुख्य केन्द्र चकौड़ी सन्त आश्रम ही था, जहां पर सब स्थानों का परिभ्रमण कर आ जाते थे।

एक बार आप इस चकौड़ी आश्रम की हवेली, जो सत्संग के कमरे के आगे बनी हुई थी, वहां पर टहल रहे थे। महात्मा रोशनानन्द जी व कुछ अन्य महात्माजन भी आपके साथ थे।

आप सत्संग-उपदेश द्वारा यह समझाने की कृपा फ़रमा रहे थे कि भक्ति मार्ग में मनुष्य किस प्रकार शीघ्र उन्नति कर सकता है। आपकी दृष्टि धरती पर पड़े हुए कुछ गेहूँ के दानों पर पड़ी। आपने फ़रमाया –

“समय के सन्त सद्गुरु की यही विशेषता होती है कि वह प्रकृति की वस्तु को लक्ष्य बनाकर ऐसे सरल ढंग से जीवों को समझाने की कृपा किसी करते हैं कि साधारण मनुष्य भी सरलतापूर्वक समझ जाते हैं।

” आपने धरती पर पड़े हुए कुछ दानों की ओर संकेत करके साथ वाले महात्माजनों को फ़रमाया–“अब देखो, ये थोड़े से गेहूँ के दाने देखने में कितने तुच्छ हैं और यहां से कितने आदमी गुज़रे होंगे।

उनकी दृष्टि भी इन गेहूँ के दानों पर पड़ी होगी, परन्तु इनको तुच्छ जानकर किसी ने इनकी ओर ध्यान ही नहीं दिया। यदि मनुष्य इन दानों को समेट कर उठा ले और ले जाकर लंगर के लिए रखे तथा इन्हें गेहूँ में मिला दे तो उस मनुष्य की भक्ति की उन्नति होगी और वह यथार्थ में हीरा बन जाएगा।

इसी प्रकार गुरुमुखजन जितनी श्री दरबार के लिए अधिक हित-चिन्ता (ख़ैरवाही) करेंगे, उतनी जल्दी ही भक्ति-पथ में उन्नति करेंगे।

श्री दरबार में प्रत्येक गुरुमुख सेवक हृदय से इसे अपना घर समझे। जैसे अपने घर को या अपनी वस्तुओं को सदा सम्भाल कर रखा जाता है, उसी प्रकार श्री दरबार की प्रत्येक वस्तु को अपना घर समझकर उसकी सम्भाल करे। इसमें तनिक भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

यदि एक बार गफ़लत की तो मन इसे बार-बार धोखा देकर अवनति की ओर ले जाएगा। श्री दरबार के साथ सहानुभूति रखना अपने साथ सहानुभूति रखना । इस तरह से जीव भक्ति मार्ग में शीघ्र ही उन्नति कर सकता है।

सद्गुरु के वचन तथा सद्गुरु के उपदेश ही गुरुमुख की अपनी पूँजी हैं। यही उपदेश ही समय-समय पर जीव को गिरावट की ओर जाने से बचाते हैं।

समयानुसार यह सत्संग-उपदेश उसे चेतन करते रहते हैं।” महात्मा रोशनानन्द जी श्री वचनानुसार उन गेहूँ के दानों को इकट्ठा कर लंगर में दे आये और श्री सद्गुरुदेव महाराज जी के गुणानुवाद गाने लगे।

आप सन् 1931 से 1934 तक सम्पूर्ण उत्तरप्रदेश, सीमाप्रान्त तथा पंजाब को श्री पावन वचनामृत द्वारा कृतार्थ करते रहे।

इसी बीच सन् 1934 में आपने एक बार सिन्थ से श्री स्वामी वैराग्य आनन्द जी महाराज (श्री तीसरी पादशाही जी) को चकौड़ी सन्त आश्रम में बुलवाया और उन्हें फ़रमाया कि श्री आनन्दपुर का प्रबन्ध भी आपने ही करना है।

श्री आज्ञा पाकर श्री स्वामी जी (श्री तीसरी पादशाही जी महाराज) श्री आनन्दपुर में आए और कुछ समय यहां रह कर प्रबन्ध करके पुनः श्री आज्ञा मिलने पर सिन्ध लौट गए। सिन्ध में तो श्री स्वामी जी (श्री तीसरी पादशाही जी महाराज) प्रत्येक प्रेमी के हृदय पर समासीन थे।

श्री सद्गुरुदेव महाराज जी श्री दूसरी पादशाही जी ने प्रथम बार सिन्ध में प्रेमियों को फ़रमाया था कि हम पुनः सिन्ध में श्री दर्शन देंगे। अतः उन प्रेमियों की प्रार्थना को स्वीकार कर पुनः 1934 में सिन्ध में कृपा फ़रमाई।

सिन्ध में तो मानो प्रेम रूपी अमृत दिन-रात ही बरस रहा था। प्रेमीजन सदा श्री दर्शन के लिए आतुर रहते। कई तो इतने मतवाले हो जाते कि जब आप सैर के लिए सायं समय बाहर जाते, साथ में श्री स्वामी जी श्री तीसरी पादशाही जी महाराज भी होते तो कई प्रेमी उनके नाम पर ही जयकारे बोलने आरम्भ कर देते।

आप उन्हें इस मस्ती में डूबा हुआ जब देखते तो मन ही मन अत्यधिक प्रसन्न होते। सिन्धी लोगों ने आपका भाव-भीना स्वागत किया। आपने कुछ समय तक सिंघ को अपने पावन श्री वचनामृत तथा श्री दर्शन से कृतार्थ किया। फिर वहां से आपने अन्य स्थानों के भाग्य जगाने के लिए प्रस्थान किया।

Shri Anandpur में वैसाखी का पर्व मनाना

इसके पश्चात् आपके श्री चरणों में श्री आनन्दपुर के प्रेमियों ने श्री दर्शन देने के लिए विनय पत्रिकाएँ भेजीं। उनकी विनय को स्वीकार कर आपने अप्रैल –

सन् 1935 के आरम्भ में यहां कृपा की। अब तक यहां पर श्री आनन्दपुर निवासियों ने काफ़ी ज़मीन उपज योग्य भी बना ली थी। चकों पर भी कुछ भूमि के भागों को साफ़ कर उनपर घास फूस के टपरे बना दिये गये थे। इस बार वैशाखी का पर्व श्री आनन्दपुर में मनाया गया।

सीमाप्रान्त तथा पंजाब से संगतें श्री दर्शन के लिए आई। उस समय पंजाब तथा सीमाप्रान्त की संगतों को श्री आनन्दपुर स्थान पर पहुँचना ऐसा लगता जैसे भारत से कोई विदेश जा रहा हो, क्योंकि यातायात के साधन सुलभ न थे।

कहीं बस पर जाना पड़ता था तो कहीं बैलगाड़ी पर, यहां तक कि कभी-कभी तो पैदल यात्रा भी करनी पड़ती थी। इसी पर्व पर सिन्ध से श्री स्वामी जी श्री तीसरी पादशाही जी महाराज भी आए। आपने उनको जाने से पहले श्री आज्ञा फ़रमाई कि अपने अधिकृत सम्पूर्ण क्षेत्र का निरीक्षण कर लो।

आप भविष्य की जानते हुए फ़रमा रहे थे, क्योंकि श्री स्वामी जी श्री तीसरी पादशाही जी महाराज ने बाद में सम्पूर्ण श्री आनन्दपुर का निर्माण करना था। उन्होंने श्री आज्ञानुसार ऐसा ही किया।

पंजाब की संगतों ने श्री चरणों में पंजाब जाने के लिए विनय की। आप जब पंजाब के लिए विदा होने लगे तो श्री आनन्दपुर के निवासी प्रेमियों ने कार को घेर कर कार के आगे दण्डवत् कर दी।

श्री आनन्दपुर के प्रेमी यह चाहते थे कि आप सदा हमारे पास रहें। आपने उस समय एक पलंग मंगवाया तथा उस पर विराजमान हो गए। सब प्रेमी पलंग को घेर कर खड़े हो गए।

इधर महात्मा पूर्ण श्रद्धानन्द जी श्री आज्ञानुसार कार को फाटक के पास ले गए, उधर आप प्रेमियों को श्री दर्शन से निहाल करने लगे। सभी प्रेमियों ने इस दर्शन रूपी स्वांति सलिल को पिया। उस समय श्री वचन हुए- “हमने अब एक स्थायी स्थान पर विश्राम करना है। अब हम सड़क के मध्य में खड़े हैं। हमारा निवास स्थान भी मध्य में है और होगा।”

अर्थात् आप सांकेतिक भाषा में यह फ़रमा रहे थे कि सद्गुरु का सिंहासन जीव के शरीर के मध्य में हृदय स्थान पर स्थित है। दूसरे यह कि भक्ति परमार्थ का केन्द्र ‘श्री आनन्दपुर भारत के मध्य में, मध्य प्रदेश में है, इसलिए सब ओर से लोग यहां आकर ज्ञान-लाभ प्राप्त करने में समर्थ होंगे।

आपने ये श्री वचन फ़रमाकर प्रेमियों को पलंग फाटक के पास ले जाने का आदेश दिया। फाटक के पास पहुँचकर आप कार में विराजमान हुए तो प्रेमियों ने कार को चारों ओर से घेरकर दण्डवत्-वन्दना की और विनय की कि प्रभो! कुछ समय अभी और हमें श्री दर्शनों से कृतार्थ कीजिए।

आपने मुसकराते हुए फ़रमाया- ‘प्रेमियो! श्री आनन्दपुर आनन्द का धाम है, यहां आनन्द ही आनन्द बरसेगा। आप अधीर न हों, अब हमें परमार्थ के कार्य के लिए दूसरी जगह भी जाना है। परन्तु प्रेमियों के हृदय की प्रेम-प्यास इतनी बढ़ी हुई थी जिसे बुझाए बिना श्री प्रभु जा ही नहीं सकते थे।

श्री प्रभु ने देखा कि सबकी आँखों में अविरल अश्रुधारा बह रही थी और मुँह से कुछ कहते नहीं बन रहा था, अतः इस असीम विरह दशा को देखकर कार से नीचे उतरकर फ़रमाया- ‘हम अभी नहीं जायेंगे।

तत्पश्चात् नित्यप्रति श्री दर्शन और प्रवचनामृत से प्रेमियों को निहाल करने लगे। उस समय बहुत से अधिकारी भक्तजनों को साधु-वेष भी प्रदान किया।

उस समय के दिव्य दृश्य को देखकर हर्षातिरेक से प्रेमियों ने जयकारों की ध्वनि से नभमंडल को गुंजा दिया। एक नया ही रंग सबपर छाया हुआ था। एक निराली मस्ती का समागम बना हुआ था।

श्री आनन्दपुर में साधु मण्डली का यह विशेष अवसर पर्व की तरह मनाया गया। प्रेमियों ने श्री सद्गुरुदेव महाराज जी का धन्यवाद करते हुए स्तुति के भजन गाये। इस खुशी में खूब प्रसाद बांटा गया और भण्डारा भी किया गया। श्री दर्शन, सेवा, सत्संग का आनन्द लेते सभी अपने भाग्यों की सराहना करने लगे।

अतः आपने श्री आनन्दपुर को अन्तिम बार अपने श्री पावन दर्शन देकर कृतार्थ किया और पंजाब के लिए प्रस्थान कर चकौड़ी सन्त आश्रम में लौट आये।

श्री तीसरी पातशाही जी ने श्री दूसरी पातशाही जी के बाद आबाद किया।

shri anandpur dham

3 thoughts on “Shri Anandpur”

  1. हम वास्तव मे बहुत ही सौभाग्य शाली हैं कि हमे उच्च कोटि के श्री सदगुरू जी की अपार कृपा से उच्चा सुच्चा दरबार और चरण शरण प्राप्त हुई है।
    श्री सदगुरू देवाय नम:।🙏🙏🙏🌹🌹🌹

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