सद्गुरु और शिष्य

सद्गुरु और शिष्य

सद्गुरु और शिष्य- सद्गुरु का अपने शिष्य से प्यार

सद्गुरु और शिष्य– सद्गुरु का अपने शिष्य के साथ कितना प्यार होता है. इसको स्वयं शिष्य भी नहीं जान सकता, तो दूसरे लोग क्या जान सकते हैं। जो शिष्य गुरु की करनी में हर प्रकार से अपनी भलाई ही मानता है

वही यथार्थ में सच्चा शिष्य कहलाता है तथा वास्तव में उसीका एक दिन उद्धार भी होगा।

कहते हैं-एक महापुरुष अपने शिष्य को साथ लिये हुए मार्ग में जा रहे थे। चलते-चलते उनको एक स्थान पर जंगल में रात काटनी पड़ी। सन्तों ने अपने शिष्य से कहा है:

बेटा! जंगल का मामला है, हम और तुम दोनों बारी-बारी से सोयें और जागें। जब दिन चढ़ेगा तो फिर यात्रा करेंगे।

शिष्य ने विनय की—प्रभो! आप आराम कीजिये, है मैं जागता रहूँगा।

सन्तों ने कहा-नहीं बेटा! जागना और सोना बारी। बारी से ही ठीक रहेगा।

तब शिष्य ‘सत-वचन’ करके चुप हो गया। सन्त आराम करने लगे और शिष्य जागता रहा। जब आधी रात बीत गयी, तब सन्त जी उठे और शिष्य सो गया। जब एक पहर रात रह गयी, सन्त जाग रहे थे।

क्या देखते हैं, एक साँप इनके शिष्य की ओर सीधा चला आ रहा है।

सतगुरु ने बचाई अपने शिष्य की जान

सन्त ने कहा- “ऐ साँप! तुझे मेरे शिष्य का खून पीना है या जान लेनी है?”साँप बोला-‘मुझे तो खून पीना है।’सन्तों ने कहा-‘यदि इसका खून हम स्वयं ही तुझे निकालकर दे दें—फिर तो तू कुछ नहीं कहेगा?

साँप बोला-‘खून पीकर मैं चला जाऊँगा।’तत्पश्चात् वह महापुरुष अपने सोये हुए शिष्य की छाती पर पाँव रखकर, चाकू से उसकी गर्दन का खून निकालने लगे। उस समय शिष्य की आँख खुल गई।

क्या देखता है कि गुरुदेव छाती पर बैठकर चाकू हाथ में लिये ।

उसकी गर्दन काटने लगे हैं। यह दृश्य देखकर उसने आँखें बन्द कर लीं।

तब गुरुदेव जी ने उसके गले का थोड़ा-सा खून निकालकर साँप के हवाले कर दिया और शिष्य के गले पर पट्टी बाँध दी। साँप खून पीकर चला गया और सन्त जी अपने शिष्य के पास बैठ गये।

जब रात सारी बीत है गई, दिन चढ़ा, तब गुरु शिष्य दोनों फिर सफ़र पर चल पड़े। मार्ग में चलते-चलते सन्तों ने अपने

शिष्य से पूछा, ” जब हम रात को तेरी छाती पर बैठे, तब तेरी आँख खुल गई थी और फिर तुने आँख बन्द कर ली। उस समय तूने क्या समझा था?

शिष्य ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की-भगवन्! मेरे उस समय यह बात आयी कि मेरे गुरुदेव यदि मेरा गला काटने लगे हैं, तो इसमें भी मेरी भलाई ही होगी।तब ऐसी अवस्था अपने शिष्य की देखकर सन्तों की प्रसन्नता की कोई सीमा न रही।

बड़े प्यार से उसे अपने हृदय से लगाया और कृपादृष्टि से निहाल कर दिया।

अभिप्राय यह कि सन्त-महापुरुष ही जीव के सच्चेमित्र और हितकारी होते हैं, जो हमेशा रूह की भलाई के लिये सोचते रहते हैं तथा इस लोक में भी जीव को संकटों:से बचाते हैं और परलोक में भी सहायता करते हैं।

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