भक्त जोगासिंह

एक दृष्टांत है- भक्त जोगासिंह जब छोटा था तो अपने पिता जी के साथ दशम पादशाह श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के दर्शन हेतु जाया करता था।

एक दिन गुरु साहिब जी द्वारा नाम पूछे जाने पर उसके पिता जी ने बताया कि इसका नाम जोगा है।

गुरु साहिब जी ने फ़रमाया कि जोगा तो सभी हैं, कोई माया जोगा, कोई परिवार जोगा, कोई सत्कार जोगा तो कोई मार जोगा। तो फिर यह किस जोगा है?

पिता जी ने जवाब दिया कि यह आपके जोगा है, क्योंकि यह भक्तिवान है।

गुरु साहिब जी ने जोगा को फ़रमाया कि ठीक है, तुम घर जाओ। जब हमारा हुकम होगा तो तुम तुरन्त तभी चले आना।

दोनों बाप बेटा घर चले गए। जोगा बड़ा हुआ तो पिता ने उसकी शादी तय कर दी।

इधर गुरु साहिब जी ने अपने शिष्य को हुकमनामा देकर फ़रमाया कि यह जोगे को उस वक्त देना जब वह दो लावां पूरी कर चुका हो और केवल एक लावां शेष हो ।

सेवक हुकमनामा लेकर चल दिया। लावां का समय आया, जब दो लावां पूरी हो गई तो सेवक ने हुकमनामा खोलकर जोगा के हाथ में पकड़ा दिया।

उसमें लिखा था कि हुकम मिलते ही जो पग बढ़ाओ वह हमारी तरफ ही बढ़ाओ। यह पढ़कर जोगा रुका और पल्लू की गांठ खोलने लगा।

कहने लगा कि मेरे श्री गुरुमहाराज जी का आदेश आया है कि हुकमनामा पढ़ते ही तुरन्त चले आओ। इसलिए में अभी वहाँ जा रहा हूँ।

सबने कहा कि एक ही लावां शेष है, इस कार्य को पूरा करके जाओ। लेकिन जोगा सिंह सबकी बात अनसुनी करके अपने श्री गुरुमहाराज जी के आदेश को सर्वोपरि मान वहाँ से निकल पड़ा।

सद्गुरु को सेवक का अहंकार या कोई भी विकार अच्छा नहीं लगता।

रास्ते में मन में विचार करने लगा कि आज तक ऐसा हुकम किसी भी भक्त ने नहीं माना होगा जैसा मैंने माना । सद्गुरु को सेवक का अहंकार या कोई भी विकार अच्छा नहीं लगता।

कुदरत का संयोग कुछ ऐसा हुआ कि जोगा सिंह को जहाँ रात रुकना पड़ा, उस जगह के सामने एक वेश्या रहती थी। उसे देख जोगा का मन चलायमान हो गया।

कहाँ तो लावां भी छोड़ आया और कहाँ सुरति वेश्या में अटक गई। मन पर माया का ज़ोर हुआ तो आधी रात को उठकर वेश्या के घर की ओर चल दिया।

क्या देखता है कि एक पहरेदार तलवार लेकर पहरा दे रहा है। उसे देखकर जोगा वापस आ गया। कुछ समय बीतने पर वह फिर वेश्या के घर की ओर गया, पहरेदार को तैनात देख पुनः वापस लौट आया।

करते करते रात का आखिरी पहर आ गया। अब की बार जब जोगा वहाँ गया तो उस पहरेदार ने कड़कती आवाज़ में कहा कि लिबास तो तुम्हारा सिक्खों वाला है।

यह समय भजन बन्दगी का है, जाओ उसमें अपना मन लगाओ। जो कर्म तुम्हें शोभा दें, वही करो, यहाँ समय मत गंवाओ।

यह सुनकर उसकी आँखें खुल गई और वह अपनी करनी पर भारी पश्चात्ताप करने लगा।

जब भक्त जोगासिंह श्री गुरुमहाराज जी के चरणों में उपस्थित हुआ

तो श्री गुरुमहाराज जी ने फ़रमाया कि तुमने हमारा हुकम माना तो हमने भी सारी रात जागकर तुम्हारे ऊपर पहरा देकर तुम्हें गलत मार्ग पर जाने से बचाया।

यह सुनकर जोगा बहुत शर्मसार हुआ और अहंकार छोड़कर दीनता धारण कर उसने अपना जन्म सफल किया।

आशिक वही जो आज्ञा माने । रहे प्रेम में हुकम पछाने ॥ गुरु की रज़ा को सत कर जाने । छोड़ ख्यालों के ताने बाने ।।

सच्चा सेवक वही है जो सद्गुरु की आज्ञा के सनमुख अपनी जान की भी परवाह न करे। अन्य सभी ख्यालों को छोड़कर सद्गुरु के हुकम को सत्य करके माने।

जिन्होंने सद्गुरु का हुकम मानकर अपना सिर श्री चरणों में भेंट किया, श्री सद्गुरुदेव महाराज जी ने भी अपना विरद जान उनकी लाज रखी।

गुरुवाणी में वर्णन आया है

हरि अपणी किरपा धारी ॥ प्रभ पूरन अपने दास को भइओ सहाई ।।

सत्पुरुष कथन करते हैं कि प्रभु परमात्मा ने अपनी कृपादृष्टि करके मेरी पूर्ण रूप से लाज रखी है। प्रभु अपने दास का आप सहायक बना है।

वास्तविकता भी यही है कि जो सद्गुरु का दामन थामकर अपना सर्वस्व उन पर न्योछावर कर देते हैं, वे सद्गुरु की कृपादृष्टि के पात्र बन अपना जन्म सकारथ कर लेते हैं। कहा भी है

ऐसा कौन कर सकता है सच्चे सतगुरु के बिना, भगत को योग वैराग के भंडार खूब भरके देता है ।

मिटाकर अज्ञान का अंधकार, करे विरद की संभार, इक पल भी न आँखों से वह ओझल होता है ।

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