प्रश्न उत्तर आध्यात्मिक

प्रश्न उत्तर

कौन सा मार्ग सुगम है?

भक्ति मार्ग बहुत सुगम है। इसमें कोई कठिनाई नहीं। जिस दिन से आरम्भ करो उसी दिन से यह सुखदायी है, दुःख का लेशमात्र भी नहीं। विरह में भी अजीब आनन्द है जिसको विरही ही जानते हैं। इसमें न कोई विशेष साधन है और न कोई खास सामग्री।

ऐसा नहीं कि जिसके बगैर काम न चल सके। फल हों, फूल हों, पत्ते हों या केवल जल ही हो, कुछ भी न हो तो मानसी पूजन और ध्यान ही पूर्ति कर देता है। अधिकारी का कोई भेद नहीं और न वर्ण रुकावट कर सकता है।

पूजन भजन न आश्रम ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, बालक, पापी, पुण्यवान जो चाहे कर सकता है। जैसे ध्रुव, प्रह्लाद, गणिका, शबरी, विदुर पत्नी आदि सबका इसमें अधिकार रहा। इसमें विघ्न का भी डर नहीं है। भक्ति और माया दोनों स्त्री स्वरूप हैं। इसलिये माया भक्त को मोहित नहीं कर सकती।

संकल्प कैसे बनते हैं ? – संकल्प का अर्थ क्या हैं ?

संकल्प दो शब्दों से मिलकर बना है। सम के अर्थ हैं शान्ति, सुरत, उन्नति आदि। ‘कल्प’ के अर्थ हैं कलना यानि ऐसी कल्पना करना जिससे सुख, शान्ति और उन्नति हो। इसी का रूप तर्पण दान आदि सभी धर्म के कार्य करने से पूर्व संकल्प बोला जाता है।

अर्थात् पुण्य कार्यकरनेवाला मनुष्य संकल्प करता है कि मैं अमुक पुण्य कर्म करूंगा या करनेवाला हूँ। लेकिन किसी बुरे काम के लिए जो मानसिक विचार किया जाये कि अमुक मनुष्य को मारूँगा उसको संकल्प नहीं कहना चाहिये। क्योंकि इसके करने से सुख-शान्ति नहीं होगी।

संकल्प शक्ति को कैसे बढ़ाये ?

संकल्प शक्ति को बढ़ाने के लिए पाँच साधनों की आवश्यकता है।

१. संकल्प एक ही हो, जैसे सन्तपुरुषों का वचन बदलता नहीं है।

२. संकल्प को पूरा करने की उत्कट भावना।

३. प्रलोभन का त्याग हो।

४. संकल्प पूर्ति के लिए परिश्रम करे।

५. संकल्प में दृढ़ता हो। अथर्ववेद में संकल्प के विषय में लिखा है, ‘केवली सा मेस्तु’।

अर्थात् मेरा संकल्प केवली हो, स्पष्ट हो और स्थिर हो। संकल्प में ये बातें न हों तो सफलता प्राप्त न होगी। डावाँडोल चित्त और ढीले यकीनवाले का काम कभी पूरा नहीं होता।

आधि और व्याधि किसे कहते हैं ?

आधि और व्याधि दो तरह के रोग होते हैं। जब संकल्प होता है कि यह वस्तु मुझे मिले और वह नहीं मिलती तब सोचकर दुख होता है। अर्थात् मन से उपजनेवाले रोग को आधि कहते हैं।

जब वात, पित्त और कफ़ का विकार शरीर में होता है और उससे दुख होता है तो उसे व्याधि कहते हैं। जब मन और शरीर के रोग इकट्ठे होते हैं तो उनको आधि-व्याधि कहते हैं।

सबसे भयंकर क्या हैं ?

बड़े-बड़े सात महा पातकों में से अहंकार सबसे बड़ा और भयंकर है। सभी मतों के शास्त्रों में अहंकार को ऐसा ही माना है। यह सबसे पहले प्रकट होता है और सबसे पीछे छूटता है। मनुष्य ही नहीं बल्कि पशु पक्षी तक में यह मौजूद है।

बड़े-बड़े महात्मा जिन्होंने सब संसारी सुखों और काम-क्रोध, लोभ-मोह तक को जीत लिया वह भी अहंकार के सामने बहुधा घुटने टेक जाते हैं। मान-बड़ाई की चाहना इसी के कारण है।

सबसे बड़ी खराबी इसमें यह है कि यह खूबसूरत, ताकतवर, दौलतमंद और महान ही नहीं बनना चाहता बल्कि सबसे ज्यादा खूबसूरत, सबसे ज्यादा ताकतवर, सबसे ज्यादा अमीर और हर बात में सबसे बड़ा होना चाहता है।

दूसरी खराबी यह है कि अभिमान और अहंकार अपने में तो बहुत अच्छे मालूम होते हैं परन्तु दूसरे में सबसे बुरे नजर आते हैं। तीसरी बात है यह है कि मनुष्य मात्र की आधे से ज्यादा मुसीबतों की जड़ अहंकार ही दिखलाई पड़ती है।

हर मनुष्य की कितनी अवस्थायें होती हैं ?

हर मनुष्य की चार अवस्थायें होती हैं – जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति व तुरीय। ब्रह्मज्ञानी पहली तीन अवस्थाओं को पार करके तुरीय में स्थित रहता है। उसको नींद जैसी अवस्था नहीं रहती। जब नींद नहीं तो स्वप्न कैसे दीखें?

अच्छे मनुष्य में कौन सी बातें पाई जाती हैं?

अच्छे मनुष्य में निम्न बातें पाई जाती हैं।

१ मीठा स्वभाव २ पड़ोसी का प्यारा ३. वाणी वश में होती है, कम बोलता है। ४. मोठा वचन बोलता है।

५. दूसरों के दोषों पर परदा डालता है। ६. अपनी आवश्यकता की वस्तुओं में काफी सीमा तक कमी करता है।

७. अधिक धन संचय नहीं करता ८. कम सोता है ९. क्रोध कम करता है. आये भी तो शीघ्र शान्त होता है

१०. दूसरों को अच्छी सम्मति देता है ११. बीमारी, दुख, तकलीफ, कठिनाइयाँ उस पर बहुत आती है परन्तु वह सहनशील होकर सन्तोष से उनको झेलता है

१२. निन्दा होने से न डरता है, न बुरा मानता है १३. आलसी नहीं होता और न बेकार रहता है, यदि काम न हो तो भजन-ध्यान करता है।

१४. एकान्त पसन्द करता है १५. समानता से बर्तता है, किसी बात की अति उसको पसन्द नहीं। १६. धर्म और परिश्रम की कमाई खाता है।

१७. परमात्मा से पूर्ण प्रेम करता है। १८. बहुत सी विद्या बिना सीखे उसको आ जाती है १९. भोजन, वस्त्र की चिन्ता नहीं करता, भगवान पर पूरा विश्वास रखता है।

२० अपने दोषों पर सदा दृष्टि रखता है और उनको त्यागने का यत्न और पुरुषार्थ करता है। २१. दरिद्र, दुखी, मोहताज, धर्मात्मा और भले मनुष्यों में दया और मित्रता का बर्ताव करता है

२२. अपनी शक्ति अनुसार दान देता है २३. उससे मनुष्यों की बहुत सी आवश्यकतायें पूरी होती रहती

है

२४. वह अपने तन और धन को ईश्वर की निधि समझता है।

१०९. जो मनुष्य मालिक और मौत को हर समय और हर स्थान पर सामने उपस्थित समझेगा उसका दीन-दुनिया और लोक-परलोक अर्थात् प्रवृत्ति और निवृत्ति सब सुधर जायेंगी। उससे पाप नहीं होंगे।

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