श्री परमहंस दयाल जी का जीवन चरित्र

जीवन चरित्र – श्री परमहंस दयाल जी का

श्री परमहंस दयाल जी त्याग, तप, तितिक्षा, दया, क्षमा, उदारता, निस्पृहता, फक्कड़पन, निर्भीकता की साक्षात् मूर्ती

जब भी श्री परमहंस दयाल जी महाराज का अनुस्मरण होता है तब उनके रूप में त्याग, तप, तितिक्षा, दया, क्षमा, उदारता, निस्पृहता, फक्कड़पन, निर्भीकता एवं ‘निर्मानमोहा जितसंगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः’ के प्रतीक एक विरल व्यक्तित्व को यादकर मन-प्राण सात्विक श्रद्धा से पुलकित हो जाता है।

ऐसा दूसरा उदाहरण पूर्व के इतिहास-पुराणादि ग्रंथों में भी कहीं पढ़ने को नहीं मिलता।

श्री परमहंस दयाल जी ने बड़े-बड़े राज सम्मान को भी अत्यन्त तुच्छ बता ठुकरा दिया।

भला वैसा कहाँ कोई होगा जिन्होंने पचास वर्षों तक अंग-संग रहनेवालों को भी अपना नाम तक नहीं बताया, अपने जन्म और स्थान के विषय में कभी किसी से कुछ नहीं कहा, काम कांचन और कीर्ति की माया को किंचित् भी पास फटकने नहीं दिया, बड़े-बड़े राज सम्मान को भी अत्यन्त तुच्छ बता ठुकरा दिया।

फलस्वरूप महाराजाओं के ताज भी श्री चरणों पर झुक गये, तत्कालीन वायसराय जैसी बड़ी हस्ती भी उनकी सच्ची बादशाहत के सामने नतमस्तक हो गई।

महाप्रभु जी ने स्थान, यादगार अथवा स्मारक मठ बनाना कत्तई पसन्द नहीं किया

महाप्रभु ने अपनी यादगार के रूप में कोई स्मारक, स्थान, मठ बनाना कत्तई पसन्द नहीं किया।

महाज्ञानी होकर भी चेलों का दल खड़ा करना उन्हें रास नहीं आया। बदले में बेलौस बोल गये हम किसी के गुरु नहीं, बल्कि हम ही जमाने भर के चेले हैं। हम किसी को उपदेश वगैरह नहीं देते, हमारे रूप में पूर्ण ब्रह्म ही कहीं गुरु बनकर उपदेश करता है तो कहीं चेला बनकर मानता है।

सदा अपनी अवधूत वृत्ति में मस्त रहे श्री दयाल प्रभु। प्रतिष्ठा तु कूकरी विष्ठा गौरवं घोर रौरवम्’ का व्रत धारण किये उन्होंने मान-प्रतिष्ठा को अत्यन्त हेय माना।

यह भी कैसा सुखद आश्चर्य है कि जो महाप्रभु जीवनभर अपने प्रति सदा गुमनाम रहे, संग और संग्रह से सर्वदा दूर रहे, उनके उपदेशों से आज विश्व का ‘विशाल जनमानस शिष्यभाव से जुड़कर आत्मबोध प्राप्त कर रहा है।

असंख्य प्राणी उनकी पावन मंत्र साधना का अनुपालन कर अपना जीवन कृतार्थ कर रहे है। जिन्होंने अपना नाम तक कभी बताना नहीं चाहा उनके नाम स्वर्णाक्षरों में लिखे जा रहे है।

जिन्होंने कोई स्थान, यादगार अथवा स्मारक नहीं बनाना चाहा उनकी याद में देश विदेश में सैकड़ों विशाल मठ-मंदिर, आश्रम और सत्संग केन्द्र अध्यात्म विद्या की पाठशाला के रूप में संचालित हो रहे हैं।

हजारों-हजार नारि-पुरुष अपना सर्वस्व न्योछावर कर गुरुप्रेम के दीवाने बने, योगी-संन्यासी का बाना धारणकर, घर-घर अपने गुरुदेव की जयध्वनि करते फिर रहे हैं।

ऐसा ही होता है तप-त्याग का युगान्तरकारी अमोघ प्रभाव, जो चिरकाल तक चतुर्दिक अपना प्रकाश बिखेरकर जनमानस का पथ आलोकित करता रहता है।

गौतम बुद्ध के चरणों पर जितने फूल आजतक चढ़े होंगे उनकी तुलना में कई टाटा-बिड़ला में जैसे धनपतियों की पूरी हस्ती भी कम पड़ जायेगी। शंकराचार्य, ईसा, महावीर, नानक, कबीर आदि द्वारा किये गये तप-त्याग का मोल आज संसार किन रूपों मे चुका रहा है, यह जगजाहिर है।

सच्चे महापुरुषों के जाने के बाद संसार भर में उनकी कीर्ति का दमामा बजता है। श्रीरामकृष्ण परमहंस को उनके जीवनकाल में लोग दक्षिणेश्वर की काली मंदिर के एक अपढ़ पुजारी से अधिक कहाँ जान पाये! हाँ, वैसे सत्पुरुष को उनके जीवनकाल में आत्मिक तौर पर नरेन्द्र जैसा कोई सत्पात्र ही जान पाता है। तब वह अहोभाव से भरकर कह उठता है

वारता सरकार पर दोनों जहाँ के माल-ो-जर,

क्या कहूँ कुछ है नहीं वारता होता अगर ।

वह अपने गुरु के यशोध्वज को ऊँचा डंडा बनकर दिग्दिगंत में फहराकर गौरवान्वित होता है। सचमुच जिस पिता को कोई सत्पुत्र नहीं मिलता उसकी श्री, सम्पदा, कीर्ति आदि सब कालान्तर में व्यर्थ हो जाती है। उसी प्रकार जिस गुरु को उन्नत कोटि का सच्छिष्य नहीं मिलता वे भी लोकजीवन में विशेष कीर्तित नहीं हो पाते।

यहाँ बात कुछ ऐसी है कि श्री परमहंस दयाल जी जिस तरह त्याग, तप और आत्मज्ञान में हिमालय सरीखे महान् थे वैसे ही तप-त्याग में ऊँचे मिले उनके सुयोग्य ज्ञानवाहक, तपोनिधि श्री हरिहर बाबा, सद्गुरुदेव श्री स्वामी स्वरूपानन्द जी महाराज – श्री नंगली निवासी भगवान ।

उन्होंने अपने जीवन अन्त-अन्त तक गुरुदेव के नाम-ज्ञान को देशभर में अथक रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। वे अपने पीछे भी आत्मनिष्ठ, सिद्ध तपस्वी, ज्ञानी संतों की एक विशाल परम्परा छोड़ गये जिनके ज्ञान-उपदेशों से आज विश्व का बृहत्तर जनसमाज लाभान्वित हो रहा है।

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