भक्ति रतन

भक्ति रतन यह आध्यात्मिक ज्ञान का भंडार है। यह उन सत्पुरुषों के विचारों का प्रस्तुतिकरण है, जो दिव्य धाम के वासी हैं, परन्तु इस समय हमारे मध्य विराजमान हैं। यह आत्मज्ञान और आत्मसिद्धि की उस उच्च अवस्था की ओर संकेत करती है, जो जीव को सांसारिक परेशानियों से ऊपर उठा कर परम शान्ति के राज्य में ले जाती है।

मनुष्य अशांत क्यों रहता है ?

भक्ति रतन

अपनी अनियंत्रित इच्छाओं के कारण ही मनुष्य अकथनीय दुःखों से अशान्त है तथा चिन्ता, दुःख और संशयों से घिरा रहता है। केवल महापुरुषों के विचार ही नियंत्रित एवं सर्वथा पवित्र होते हैं।

जीवों को मुक्ति प्रदान करने वाले ऐसे पूर्ण पुरुष दया के कारण कष्ट-क्लेशों से पूर्ण संसार में दुःखी-पीड़ित जीवों को काल और माया के बन्धन से मुक्त कराने के लिए ही आते हैं। उनके उपदेश : शान्तिपूर्ण जीवन बनाने में चुनौती बनने वाले सभी दुःखोंके लिए मन्त्रसिद्ध औषधि के समान हैं। प्रेम और दया से वे निर्बल आत्माओं को शक्ति प्रदान करते हैं। उनके आत्मिक उपदेश जीव को उसकी सुप्त मानसिक अवस्था से जगाते हैंऔर मनुष्य जीवन के श्रेष्ठ लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए : उत्साहित करते हैं।

सन्त-महापुरुष हमें बताते हैं कि यह संसार जिसमें हम रह रहे हैं और यह सभी सांसारिक वस्तुएँ नाशवान हैं। यहाँ चिरस्थायी एवं नित्य कुछ भी नहीं है। जो अपरिवर्तनशील है और जिसे सनातन कहा जाता है, केवल हमारी आत्मा है। परमात्मा का अपना रूप ही इसका स्वरूप है। इसीलिए कहा जाता है कि “आत्मा ही परमात्मा है।”

भगवान श्रीकृष्ण के वचन हैं:

“यह आत्मा अच्छेद्य है ” यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य है तथा यह आत्मा निःसन्देह नित्य, सर्वव्यापक, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है।”( श्रीमद्भगवदगीता २/२४)

ईश्वर की सृष्टि में मानव ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जिसे ईश्वरानुभूति हो सकती है। यह विशेष अधिकार केवल मनुष्य को प्रदान किया गया है, किसी अन्य को नहीं। अतः मानव जीवन अत्यन्त अमूल्य है। तभी तो इसे नर-नारायणी देह कहा जाता है । यहाँ तक कि स्वर्ग के देवता भी इस मनष्य जन्म के लिए तरसते हैं । केवल मनुष्य-योनि में ही काल और माया की जंजीरों को तोड़कर मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।

रामायण में भगवान् श्री राम अयोध्यावासियों को सम्बोधित करते हुए फ़रमाते हैं

बड़े भाग्य मानुष तन पावा।सुर दुर्लभ सद्ग्रन्थन गावा ॥

साधन धाम मोक्ष का द्वारा।पाई न जेहि परलोक संवारा ॥

आनंद संदेश के भक्ति रतन 

ईश्वर ने मनुष्य को अपना ही प्रतिरूप बनाया है, इसलिए यह स्वाभाविक है कि मनुष्य में भी वही गुण होने चाहियें जो उसे बनाने वाले परमात्मा में हैं। परन्तु ऐसा है नहीं। यहाँ तक कि परमात्मा का आधारभूत गुण ‘मन की शान्ति’ का भी जीव में अभाव है। वह प्रायः अपने सम्पूर्ण जीवन में दुःखी और अभावग्रस्त रहता है।

ध्यानपूर्वक यहाँ अध्ययन करने से पाठकों को निःसंदेह लाभ होगा। वह मानव-जीवन के वास्तविक उद्देश्य को समझेंगे और महापुरुषों के उपदेशों पर आचरण करके निश्चित रूप से चित्त की स्थिरता और शान्ति को प्राप्त करेंगे।

यहाँ बताये गये ‘सन्त मत के नियमों’ पर चलकर जिज्ञासु अपने हृदय में शाश्वत शान्ति एवं निश्चलता को अनुभव करेंगे।जो भी इसे पूर्ण श्रद्धा से पढ़ेंगे और सन्त-महापुरुषों की शिक्षाओं के अनुरूप स्वयं को ढालेंगे, उनके जीवन की वर्तमान समस्याएँ तथा उलझनें स्वयमेव सुलझ जायेंगी और जो व्यक्ति अपनी ही भ्रान्तियों, स्वार्थ और दुष्कर्मों में उलझा रहेगा, वह अध्यात्म के राज्य में कभी प्रवेश नहीं पा सकता।

आत्म-संयम, दृढ़विश्वास, पवित्रता, सत्यनिष्ठा तथा उचित नियंत्रित विचारों की सहायता से मनुष्य ऊँचा उठ सकता हैऔर पाश्विक प्रवृत्ति, अकर्मण्यता, अपवित्रता, व्यभिचार और संदेहात्मक विचारों से निम्नता की ओर जाता है ।

अतः सत्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए जीव को पूर्ण महापुरुषों की शरण में जाकर, उनकी आज्ञा शिरोधार्य करके, इस मार्ग में अधिकाधिक उन्नति करनी चाहिये। उनकी सेवा निष्काम भाव से तथा श्रद्धा-विश्वास से करके उनके आशीर्वाद तथा कृपा का पात्र बनना चाहिए।

यदि कुछ समय के लिए संसार के कोलाहल से उपराम होकर अपने अन्तर हृदय में स्वयं को स्थित करोगे तो वहाँ विराजमान मालिक सद्गुरुदेव के साक्षात् दर्शन कर सकोगे।

यह आपको अध्यात्म के सर्वोच्च राज्य में ले जाकर आपको आपकी आत्मा के दर्शन करायेंगे। यह वही राज्य है जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा का धाम है और जहां हमारे सन्तमहापुरुष हमें पहुँचा कर ‘तुम वही हो’ इस महाकाव्य का अनुभव कराना चाहते हैं।

यह आपको अध्यात्म के सर्वोच्च राज्य में ले जाकर आपको आपकी आत्मा के दर्शन करायेंगे। यह वही राज्य है जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा का धाम है और जहां हमारे सन्तमहापुरुष हमें पहुँचा कर ‘तुम वही हो’ इस महाकाव्य का अनुभव कराना चाहते हैं।

परन्तु इस दुःख, चिन्ता और निराशा का कारण क्या है?

इस वैज्ञानिक युग में सभी शारीरिक सुखों और ऐश्वर्यों से सम्पन्न होते हुए भी वह मानसिक रूप से अशान्त क्यों है? इन सब समस्याओं का यहाँ पर भलीभाँति समाधान किया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें यह भी बताया गया है कि मनुष्य अपनी खोई हुई दौलत—’मानसिक शान्ति’ को पुनः कैसे प्राप्त कर सकता है।